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________________ ७. जीव-तत्त्व ७. जल में मीन प्यासी 'मुझे सुख चाहिये', 'मुझे सुख चाहिये' हरदम अन्तर में उठने वाली इस प्रकार की पुकार से प्रेरित हुआ मैं आज तक, क्या खाली बैठा रहा? क्या मैंने आज तक उसे नहीं खोजा ? नहीं ऐसी बात नहीं हैं, जिस प्रकार आज तक मैं अपने को खोजता फिरा, उसी प्रकार इस शान्ति की खोज भी कुछ कम न की, और आज भी बराबर कर रहा हूँ । ६. शान्ति की खोज-अनादि काल के इस भव-संतापसे संतप्त होकर मैंने विचारा कि मेरा ज्ञान ही सम्भवतः अशान्ति का कारण है । यदि इसका विनाश हो जाय तो अशान्ति का वेदन कौन करेगा ? यह विचार कर अपने ज्ञान ४३ मूर्छित कर सदियों पड़ा रहा मैं अचेत निगोद अवस्था में, इस बात का अनुभव करने के लिये कि सम्भवतः मुझे शान्ति मिल जाय, परन्तु वह न मिली । यद्यपि अचेत हो जाने के कारण मुझे कुछ बाह्य बाधाओं सम्बन्धी कष्ट प्रतीत न हो सका, और कुछ अशान्ति व व्याकुलता का भान भी न हो सका, तदपि मैं शान्ति का भी अनुभव न कर सका । जैसे कि क्लोरोफार्म सूँघाकर अचेत किये गये रोगी को भले उस समय आपरेशन का कष्ट प्रतीत न हो, पर इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि वह सुखी है बल्कि बेहोशी दूर हो जाने पर अवश्यमेव उसे बड़े कष्ट का वेदन हो जाने वाला है, इस अपेक्षा से उसे दुखी कहा जा सकता है। इसी प्रकार 'निगोद अवस्था से कभी भी सचेत होने पर मुझे अशान्ति का वेदन ही होगा' इस अपेक्षा तथा 'अज्ञान स्वयं दुख है' इस अपेक्षा, मैं वहाँ इस ज्ञानहीन दशा में भी शान्ति की बजाय अशान्त बना रहा । 'मैं' की खोज के अन्तर्गत बताये गये क्रम से मैंने पृथ्वी मनुष्य व देव पर्यन्त अनेकों विचित्र रूप धरकर इसे खोजा, पर सदा अशांत बना रहा । शान्ति की खोज में जहाँ भी मैं गया, मेरे विश्वास के विरुद्ध वहाँ ही अनेकों बाधायें सहनी पड़ीं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति के रूपों में रह-रहकर कुदालियों की चोट, ऊपर से नीचे गिराये जाने का कष्ट, पंखे से ताड़ित होने की पीड़ा, कुल्हाड़ियो से काटे जाना आदि अनेकों कष्ट सहे । दो इन्द्रियों से पंचेन्द्रिय तक के छोटे रूपों में रहते हुये कुचले जाना, अग्नि में जलाये जाना आदि अनेकों कष्ट सहे । पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों के रूप में रहते हुये गाड़ीवान के हंटरों तथा डंडो के द्वारा तथा गरमी सर्दी के द्वारा प्रत्यक्ष प्रतिदिन देखने में आनेवाले कष्ट सहे, जिनको सहस्त्र जिह्वाओं के द्वारा भी कहा जाना शक्य नहीं है। मनुष्यों में आया तो परस्पर की लड़ाई, मारपीट, द्वेष आदि के अतिरिक्त धनोपार्जन सम्बन्धी वचनातीत चिन्ताओं के द्वारा आज प्रत्यक्ष दुःख सह रहा हूँ। नारकियों के दुखों का तो ठिकाना ही , देवों में जाकर भी मुझे चैन न मिला । अन्य देवों की सम्पत्ति को देखकर उठी हुई अन्तर्दाह में जलता रहा । गया शान्ति खोजने, मिली अशान्ति । मैंने इसे ठण्डे, गरम व चिकने रूखे पदार्थों में खोजा, खट्टे मीठे व चपरे, पदार्थों में खोजा; सुगन्धि में खोजा, नृत्यों में खोजा, सिनेमा थियेटरों में खोजा, मधुर गीत वादित्र में खोजा, सुन्दर वस्त्रों में खोजा, बड़े-बड़े महलों में खोजा, हीरे पन्ने माणिक में खोजा, स्वर्ण रतन में खोजा, बर्तनों में फर्नीचरों में खोजा, स्वादिष्ट पदार्थों में खोजा, क्रीम पाउडर में खोजा, परन्तु फिर भी अशान्त बना हुआ हूँ। राजा व चक्रवर्ती बनकर खोजा, दूसरों को दास बनाकर खोजा, एटमबम बनाकर खोजा, चन्द्र सूर्य तक जा-जाकर खोजा और कहाँ नहीं खोजा, सर्वत्र खोजा पर आज तक अशान्त क्या, हुआ हूं । प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं, मेरा अपना इतिहास है कौन नहीं जानता ? ७. जल में मीन प्यासी—बड़ी विचित्र बात है कि पुरुषार्थ करूँ शान्ति का, और मिले अशान्ति ? भोजन खाऊँ और पेट न भरे ? परन्तु ऐसा वास्तव में नहीं है। भोजन किया तो सही पर मुँह में डालकर नहीं, शरीर पर पोतकर। कैसे पेट भरे ? पुरुषार्थ किया तो सही, पर जिस दिशा में करना चाहिये था उस दिशा में नहीं। आश्चर्य है इस बात का कि असंतुष्ट रहता हुआ भी आज तक मेरे हृदय में यह बात उत्पन्न न हुई कि सम्भवतः कहीं न कहीं मेरी भूल रह रही है पुरुषार्थ करने । क्योंकि पुरुषार्थ का फल भले अल्प हो, पर उल्टा नहीं हुआ करता। रोग शमन न होते हुये भी औषधि बदलकर आज तक न देखा । एक द्वार से मार्ग का पता न चलने पर भी दूसरे द्वार की ओर जाकर न देखा । पूर्वकथित (ट्रायल एण्ड एरर थियोरी) सिद्धान्त पर न चला। फिर क्यों न होती असफलता ? सिद्धान्त के निरादर से और निकलता ही क्या है ? खोज की, परन्तु वैज्ञानिक दृष्टि छोड़कर, केवल पूर्व-अभ्यास से प्रेरित होकर, एक ही दिशा में । आज महान् सौभाग्यवश शान्ति-भंडार वीतरागी गुरु की शरण में आकर भी क्या इसे न खोज सकूँगा ? नहीं नहीं, अब इसे अवश्य खोज निकालूंगा। गुरुवर ने वास्तविक वैज्ञानिक सिद्धान्त के प्रयोग द्वारा खोज निकाला है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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