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७. जीव-तत्त्व
७. जल में मीन प्यासी
अपनी जीवन की प्रयोगशाला में बैठकर । यही मार्ग मुझको बता रहे हैं कि प्रभु ! इस नई प्रयोगशाला में अर्थात् अपने चेतनघन स्वरूप में आकर इसे खोज, इन्द्रिय-विषय सम्बन्धी भोगों में नहीं । वहाँ इसका साया भी नहीं है, न मालूम क्यों तुझे वहाँ ही अपनी शान्ति के होने का भ्रम हो गया है? सम्भवत: इस कारण से हो कि उनके भोग के समय किंचित शान्ति सी प्रतीत होती है। परन्तु भाई वह सच्ची शान्ति नहीं है, अशान्ति को और भी भड़का देने के लिये दावानल है । चार प्रकार की शान्ति का स्वरूप दर्शाते हुये पहले ही इस बात को सिद्ध किया जा चुका है।
'जल में मीन प्यासी, मुझे सुन-सुन आवे हांसी।' एक बार कोई जिज्ञासु, गुरु से जाकर पूछने लगा कि प्रभु ! शान्ति दे दीजिये। कहने लगे कि इतनी छोटी सी वस्तु देते हुये मैं क्या अच्छा लगूं। जाओ, सामने नदी में एक मगरमच्छ रहता है, उससे जाकर कहना, वह देगा तुम्हें शान्ति । नदी पर गया, मगर को आवाज लगाई और गुरु का आदेश कह सुनाया। मगर बोला, शान्ति अवश्य दे दूंगा परन्तु कुछ प्यास लगी है। पहले पानी पिला दो पीछे दूंगा, पथिक यह सनकर हँस पडा और एकाएक निकल पडा उसके मख से वही उपरोक्त वाक्य 'जल में मीन प्यासी. मझे सुन-सुन आवे हांसी।' मच्छ बोला, जा यही उपदेश है शान्ति की खोज का । शान्ति में वास करने वाले भो जिज्ञासु ! शान्ति सागर में रहते हुये भी शान्ति की खोज करता फिरता, बड़े आश्चर्य की बात है।
तू तो स्वयं शान्ति का मन्दिर है, शान्ति तेरा स्वभाव है। जो पुरुषार्थ तू कर रहा है वह भले ही तू शान्ति का समझकर कर रहा है परन्तु वास्तव में शान्ति का नहीं है, अशान्ति का है। भोगों की प्राप्ति के प्रति प्रयत्न करना इच्छाओं की अग्नि में घी डालना है । क्योंकि भोगों की अधिकाधिक उपलब्धि के द्वारा इच्छाओं में गुणाकार होता देखा जाता है। (देखो पृ० २४) । अत: इस दिशा से, अर्थात् भोगसामग्री या किसी अन्य पदार्थ से अपने उपयोग को हटाकर वहाँ लगाने से शान्ति की प्राप्ति हो सकती है जहाँ कि उसका वास है अर्थात् निज स्वभाव में एकाग्र होना ही शान्ति प्राप्ति के प्रति स्वाभाविक पुरुषार्थ है। उसी का कारण व उपाय अगले प्रकरण में दर्शाया गया है।
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M अरे जीव बारह भावनाओं से धर्म नौका की रक्षा कर ले,
इसे संसार सागर में डूबने से बचा ले।
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