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८. अजीव-तत्त्व
१. द्विविध जगत्, २. अजीव तत्त्व, ३. शरीर ।
१. द्विविध-जगत् — अहो ! वीतरागी गुरुओं की शरण, उनकी महान् करुणा तथा यह महान् अवसर कि जिसके प्रसाद से आज मैं अपनी महिमा जान पाया, स्वयं अपने दर्शन करने को समर्थ हो सका। जिनकी कृपा से आज मेरी भव-भव की इच्छा पूर्ण हुई, संताप मिटा, शान्ति के प्रति सच्चा पुरुषार्थ जागृत हुआ, अतुल प्रकाश मिला, और वह बड़ी भूल भासी जो अनादि काल से बिना किसी से सीखे बराबर पुष्ट होती चली आ रही थी, अर्थात् 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर अन्य में खोजना जो स्वयं विचार करने से 'मैं' रूप भासते नहीं, जिनमें 'मैं' कार अर्थात् अहं प्रत्यय का नाम नहीं, जो सुख-दुःख का स्वयं अनुभव कर सकते नहीं, जिनमें स्वयं विचार करने की शक्ति नहीं, जो चैतन्यवत् दीखते हैं। अवश्य पर वास्तव में अचेतन हैं, जिनके पीछे भ्रमता हुआ आज तक अपनी शान्ति को खोजता हुआ मैं अशान्त बना रहा, संतप्त व व्याकुल बना रहा।
देख तो चेतन ! जरा अपनी मूर्खता, स्वयं हँसी आ जायेगी अपने ऊपर । 'मैं' शब्द निकलते ही किस ओर जाना चाहिये था तेरा लक्ष्य, और किस ओर जा रहा है वह ? उस विचारशील अन्तरंग में प्रकाशमान सुख व शान्ति के भण्डार परब्रह्म परमेश्वर - स्वरूप, 'अहं प्रत्यय' के तथा चैतन्य तत्त्व के प्रति न जाकर तू उलझा जाता है शरीर में, इसके पृथ्वी से पर्यन्त तक के अनेक आकारों में, इसकी इन्द्रियों में, इसके स्त्री पुरुष नपुंसक चिन्हों में ? तू खोजने लगता है अपनी महिमा इसमें, अपनी शान्ति इसमें, मान बैठता है इसके जन्म में अपना जन्म, इसकी मृत्यु में अपनी मृत्यु, इसके नाम में अपना नाम, इसके विनाश में अपना विनाश, इसकी बाधा में अपनी बाधा, इसकी रक्षा में अपनी रक्षा, इसकी भूल में अपनी भूल, इसकी नग्नता में अपनी नग्नता, इसके इष्ट में अपना इष्ट, इसके अनिष्ट में अपना अनिष्ट, इसके नातेदारों को अपना नातेदार, इसके सेवक को अपना सेवक, इसके घातक को अपना घातक, इसके माता-पिता को अपना माता-पिता, इससे निर्मित धनादि पदार्थों को अपने पदार्थ, इसके कार्य को अपना कार्य, और न मालूम क्या-क्या ?
परन्तु भो 'मैं' ! क्या विचारा है तूने कभी यह कि इन्द्रियों से दिखने वाला बाहर का यह स्थूल जगत वास्तव में क्या है, और इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ अन्य है या नहीं ? तनिक देख अपने भीतर उतर कर और खुल जायेगी इस ढोल की पोल । स्थूल-शरीरों के संग्रह के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है इस अजायबघर में। कोई है पृथिवी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति इन पाँच में से किसी एक स्थावर- कायिक जीव का शरीर और कोई है चींटी से मनुष्य पर्यन्त तक के विविध जीवों में से किसी एक त्रस - कायिक जीव का शरीर; कोई है सजीव, कोई है निर्जीव और कोई है इनमें से किन्हीं दो चार आदि शरीरों का सम्मिश्रण। इनके अतिरिक्त और क्या दिखता है तुझे यहाँ ?
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पृथ्वी आदि की तो बात नहीं क्योंकि वे तो नाम मात्र को ही हैं चेतन तेरे लिये, चींटी से मनुष्य पर्यन्त के जो प्राणी चेतन दिखते हैं तुझे, वे कौन हैं— चेतन तत्त्व या उसके शरीर ? क्या इन्द्रियों के द्वारा बाहर में चेतन तत्त्व दृष्ट होता है किसी को ? उनकी बाहरी चेष्टाओं को देखकर भले कह ले तू उन्हें जीव या चेतन, परन्तु वास्तव में जो तुझे दीख रहा है वह तो उसका शरीर है। इस प्रकार चेतन दीखने वाले सब पदार्थ शरीर हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । और ये जिन्हें कि तू जड़ कहता है, क्या शरीर के अतिरिक्त कुछ और हैं ? निर्जीव शरीर ही तो हैं ये किन्हीं तेरे भाईयों के अथवा स्वयं तेरे, जिन्हें तू अब पीछे छोड़ आया है। देख ! यह मकान, मशीनें, जेवर, बर्तन आदि क्या हैं ? पृथिवी - कायिक किसी जीव के मृत शरीर या कुछ और ? और इसी प्रकार जल, अग्नि तथा वायु जिनका तू नित्य सेवन कर रहा है अपने प्रत्येक कार्य में, क्या हैं? अप, तेज तथा वायु-कायिक जीवों के मृत शरीर या कुछ और ? अन्न जो तू खाता है, वस्त्र जो तू पहनता है, कुर्सी पलंग आदि जिन पर तू बैठता है अथवा सोता है, कागज जिस पर तू लिखता है। इत्यादि सर्व वस्तुयें क्या हैं? वनस्पति- कायिक जीव के मृत शरीर या कुछ और ? इस प्रकार शरीर संघात के
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