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________________ ८. अजीव-तत्त्व २. अजीव तत्व अतिरिक्त कुछ नहीं है यहाँ, इस बाह्य जगत् में। शरीर भी स्थूल न कि सूक्ष्म और इसीलिये अतिस्थूल है यह बाह्यजगत् । कर्मों या संस्कारों का जनक होने के कारण तथा उनका जन्य होने के कारण, उनको उत्पन्न करने में सहायक होने के कारण तथा उन्हीं के हेतु से निर्मित होने के कारण, आगम भाषा में कहा गया है इसे नोकर्म। इसी प्रकार भीतर भी बसा हुआ है एक विशाल जगत् । इस बाह्य जगत से भी अनन्तगुणा है उसका विस्तार । ही सुक्ष्म होने के कारण साधारण दृष्टि का विषय न बन पावे वह, परन्तु ज्ञानीजनों की सूक्ष्म-दृष्टि से कैसे ओझल रह सकता है वह ? इसमें सम्मिलित हैं पूर्वोक्त दस प्राण–पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन तथा कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। इनका विस्तार है वचनातीत । बद्धि तथा इसकी विविध तर्कणायें, धारणायें व स्मतियाँ: अहंकार तथा इसकी विविध वासनायें, कामनायें, इच्छायें व कषायें; मन तथा इसके विविध संकल्प विकल्प, इष्टानिष्ट रूप द्वन्द्व व राग द्वेष; वचन तथा इसके विविध अन्तर्जल्प और बाह्यजल्प; श्वासोच्छ्वास या प्राण तथा देह में स्फूर्ति गरमी व कान्ति उत्पन्न करने वाली इसकी विविध शक्तियाँ, ये सब हैं वास्तव में इन दस प्राणों का कुटुम्ब । आगम भाषा में 'कर्म' नाम से प्रसिद्ध है यह ‘भाव कर्म', और जैसा कि आगे बताया जाने वाला है, यही है भगवान आत्मा का यथार्थ बन्धन जिससे मुक्त होने का प्रयास कर रहा है यह। इस प्रकार देखने से कर्म तथा नोकर्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है इस जगत् में । अभ्यन्तर जगत् है 'कर्म' और बाह्यजगत् है 'नोकर्म'। २. अजीव तत्त्व यह कहने की आवश्यकता नहीं कि बाह्यजगत् के अंगभूत अनेकविध त्रस व स्थावर शरीर जड़ हैं, जड़ परमाणुओं के पिण्ड हैं, अजीव तत्त्व हैं, और मृत्यु के समय इनका जड़त्व सबको प्रत्यक्ष भी हो जाता है। परन्तु जिस तात्त्विक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिये यह सब कथन किया जा रहा है, वहाँ तो अभ्यन्तर का यह विस्तार भी जड़ से अधिक कुछ नहीं। यद्यपि मुक्ति के समय इनका जड़त्व प्रत्यक्ष हो जाता है, परन्तु साधारण जनों के लिये उसे जानने का कोई साधन नहीं है । इसलिये युक्ति से सिद्ध करने का प्रयत्न करता हूँ। जिस पदार्थ का जो स्वभाव होता है वह सदा उस पदार्थ के साथ ही रहता है उससे विलग नहीं होता, और जो ल उसके साथ रहकर विलग हो जाय वह उसका स्वभाव नहीं कहला सकता। जब मैं अपने अन्दर में डबकी लगाकर उस चेतना में रागादि भावों को खोजने के लिये जाता हूँ तो वहाँ उनका अभाव पाता हूँ, और जब बाह्य में डुबकी लगाकर उन्हें खोजने जाता हूँ तो वे प्रत्यक्ष हो जाते हैं । बताइये उन्हें किसके कहें, चेतन के या बाह्य-जगत् के? जिस वस्तु में जिसकी सत्ता दिखाई दे उसी वस्तु की उसे कहा जा सकता है, दूसरे की कैसे कहें? अत: रागादि भावों को चेतन या जीव के न कहकर अध्यात्म के उन्नत क्षेत्र में जड़ या ज्ञेय-पदार्थों के कहा जाता है। __ अग्नि में डालने से लोहा लाल हो गया, अग्निरूप हो गया। लोहे में रहने वाली यह अग्नि वास्तव में लोहे की नहीं है, क्योंकि वैसा गर्म व लालपना लोहे का स्वभाव नहीं है। अत: वह लाली अग्नि की ही कही जाती है। इसी हआ जल गर्म हो गया। जल के अन्दर रहने वाली यह गरमी वास्तव में जल की नहीं है, क्योंकि वैसा गरमपना उसका स्वभाव नहीं है। अत: वह गरमी जल की न कही जाकर अग्नि की कही जाती है। इसी प्रकार बाह्य-जगत् के संयोग से ज्ञान रागात्मक हो गया । ज्ञान में दीखने वाले ये रागादिक ज्ञान के नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञान के स्वभाव नहीं हैं। अत: इन्हें बाह्य-जगत् का ही कहा जा सकता है, चेतन तत्त्व का नहीं। किसी की कोई धरोहर मेरे पास रखी है, कुछ दिन के पश्चात् वह ले जाता है । जब ले गया तब तो उसकी है ही, पर जब तक मेरे पास रखी रही तब तक भी क्या वह मेरी कही जा सकती है? भले ही मेरे सारे जीवन मेरे पास रखी रहे, पर मेरी नहीं कही जा सकती। इसी प्रकार जो रागादिक क्षण भर मेरे पास रहकर चले जाते हैं वे मेरे कैसे कहे जा सकते हैं? एक राग आया चला गया. दसरा राग आया चला गया. और इसी तरह यह राग सन्तति भले ही अनादि काल से मेरे साथ चली आ रही हो पर मेरी नहीं कही जा सकती । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि एक बैंक में अनेकों व्यक्तियों का पैसा आता रहता है और जाता रहता है, पर वह पैसा वास्तव में बैंक का नहीं कहा जा सकता, उपचार मात्र से ही उसका कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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