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८. अजीव-तत्त्व
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३. शरीर
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि राग की व्याप्ति चेतन के साथ नहीं है बल्कि मोह के साथ है, अर्थात् बहिर्मुखी वृत्ति के साथ है। जिसके होने पर जो हो और जिसके न होने पर जो न हो उसे व्याप्ति कहते हैं । धूम होने पर अग्नि होती ही है और अग्नि न होने पर धूम होता ही नहीं है । इस दृष्टान्त में तो एक तरफा व्याप्ति है, क्योंकि धूम होने पर अग्नि होती ही है परन्तु अग्नि होने पर धूम हो भी अथवा न भी हो इसी प्रकार जीव में और राग में एक तरफा व्याप्ति है, क्योंकि राग होने पर तो जीव होता ही है परन्तु जीव होने पर राग हो भी अथवा न भी हो । हाँ जीव न होने पर राग सर्वथा नहीं होता। परन्तु उपर्युक्त मोह तथा राग में दो तरफ़ा व्याप्ति है, क्योंकि जिस-जिस क्षेत्र में व जिस-जिस काल में यह होता है उस-उस क्षेत्र में व उस-उस काल में राग होता ही है, और जिस-जिस क्षेत्र में व जिस-जिस काल में वह नहीं होता है उस-उस क्षेत्र में व उस-उस काल में राग होता ही नहीं है, भले ही वहाँ जीव विद्यमान हो । मोह सहित संसारी-जीव में राग होता ही है और मोह-रहित मुक्त-जीव में वह होता ही नहीं है। इस व्याप्ति पर से ही यह निर्णय किया गया है कि रागादिक को जीव के न कहकर मोह के कहना च कहकर जड़ कर्मों के कहना चाहिये।
इसका यह तात्पर्य नहीं है कि रागादिक पाषाण जाति वाले किन्हीं जड़ कर्मों की कोई अवस्थायें हैं। वे हैं तो चेतन की ही अवस्थायें परन्तु इस व्याप्ति के कारण, कारण में कार्य का उपचार करके, इनको जड़ कर्मों की कह दिया जाता है । जिस दृष्टि में 'चेतन' चेतन मात्र ही हो, उस दृष्टि में राग को चेतन का नहीं कहा जा सकता। यह दृष्टि की विचित्रंता है । वास्तव में रागादिक चमगादड़वत् हैं । जिस प्रकार चमगादड़ चौपाया होने के कारण पशु तथा पंख होने के कारण पक्षी भी है, उसी प्रकार रागादि चेतन के साथ व्याप्त होने के कारण चेतन और कर्मों के साथ व्याप्त होने के कारण जड़ भी हैं। जिस प्रकार चमगादड़ की क्रिया अधिकतर पक्षियों से मेल खाने के कारण उसे पक्षी ही कहने में आता है पशु नहीं, उसी प्रकार रागादि की अधिक व्याप्ति कर्मों के साथ होने के कारण इन्हें कर्मों का ही कहा जाता है चेतन का नहीं।
जिस खाते में जड़ व चेतन इन दो व्यक्तियों के ही हिसाब पड़े हों, तीसरा कोई हिसाब ही न हो, वहाँ इस चमगादड़ राग को किसके हिसाब में डालें? शुद्धचेतन 'जीव तत्त्व' है और जड़ कर्म 'अजीव तत्त्व' । अशुद्ध-चेतन का इस दृष्टि में कोई हिसाब ही नहीं है। फिर आप ही बताइये कि इन रागादि को किसके नाम लिखें? जिसके साथ अधिक मित्रता है उसके ही नाम लिखा जाना उचित है । अत: रागादि को जड़ कर्मों के हिसाब में ही लिखा जा सकता है चेतन के हिसाब में नहीं।
भले ही पाषाणवत् अथवा उपर्युक्त शरीरोंवत् जड़ न कहें आप, परन्तु चेतन भी नहीं कह सकते हैं आप इन्हें, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मुक्त हो जाने के पश्चात् भी ज्ञान व शान्ति आदि की भाँति जीव में इनकी सत्ता दिखाई देनी चाहिये थी। इसलिये अधिक चर्चा में न पड़कर अपना काम साधने के लिये 'चिदाभासी' कह लीजिये इन्हें आप, अर्थात् चेतन सरीखा दीखने वाला जड़। और इसीलिये जिस प्रकार बाह्य जगत् के पृथिवी से लेकर मनुष्य पर्यन्त के सकल त्रस स्थावर शरीर अजीव तत्त्व में गर्भित हैं, उसी प्रकार आभ्यन्तर जगत् के इन्द्रिय-मन-बुद्धि, वासनायें आदि भी अजीव तत्त्व में ही गिनी जाने योग्य हैं, जीव तत्त्व में नहीं।
३. शरीर—जिस प्रकार अनेक परमाणुओं का प्रचय अथवा पिण्ड होने के कारण बाहर का यह शरीर कहलाता है 'काय', उसी प्रकार अनेकविध सूक्ष्म संकल्प-विकल्पों आदि का पिण्ड होने के कारण आभ्यन्तर का यह विस्तार भी कहलाता है 'काय' अथवा जिस प्रकार हाथ-पाँव आदि अनेक अवयवों का संघात होने के कारण यह कहलाता है 'पिण्ड' उसी प्रकार मन बुद्धि आदि अवयवों का संघात होने के कारण आभ्यन्तर जगत् भी कहलाता है 'पिण्ड' । जिस प्रकार जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण बाह्यपिण्ड कहलाता है 'शरीर', उसी प्रकार जीर्ण-शीर्ण स्वभावी होने के कारण अभ्यन्तर-पिण्ड भी कहलाता है शरीर । विशेषता केवल इतनी ही है कि इन्द्रियगम्य होने के कारण बाह्यपिण्ड है स्थूलशरीर और इन्द्रियगम्य न होने के कारण अभ्यन्तरपिण्ड है सूक्ष्मशरीर । स्थूल-शरीर को आगम भाषा में कहा गया है 'औदारिक' और सूक्ष्म-शरीर को दो विभागों में विभाजित करके कहा गया है 'तेजस' और 'कार्मण' । इन्द्रियों में
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