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________________ ७. जीव-तत्त्व मानती है, उन पदार्थों में जीवन का द्योतक है, प्राणों को सिद्ध करता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों ने तो प्रत्यक्ष ही उनमें प्राणों को देखा है, इन सबको सुख-दुख का वेदन करते हुये जाना है, परन्तु कुछ व्यक्ति वर्तमान में भी वृक्षों के हावभाव पर से तथा उनके हिलने डुलने पर से उनकी अन्तरंग पीड़ा या हर्ष के भावों को पहिचानने में समर्थ हैं। अतः विश्वास कर कि इन पाँचों जाति के एकेन्द्रिय जीवों में प्राण हैं, उन्हें भी सुख दुख का वेदन होता है, उनमें भी कुछ इच्छायें या आकांक्षायें छिपी हैं । माइक्रोस्कोप से दीखने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीव प्रत्यक्ष ही चलते फिरते दिखाई देते हैं, और एकेन्द्रिय जीव बैक्टेरिया आदि बढ़ते हुये दिखाई देते हैं। विशेष प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रयोगशालाओं में ४ या ५ दिनों में ही उनका वृद्धिंगत रूप कदाचित् कुछ झाड़ियों के रूप में ऊपर भी प्रत्यक्ष दीखने लगता है, तथा सौभाग्यवश आज के विज्ञान ने उनको प्राणधारी स्वीकार किया है । ४० ४. अन्तस्तत्त्व—कहाँ तक करता फिरूँ मैं इनकी सिद्धि और कहाँ तक करता फिरूँ मैं इनकी गिनती ? क्या लाभ है व्यर्थ की इन तर्कणाओं से ? अन्धकार में हाथ मारने से क्या कुछ मिलता है किसी को ? अनन्तकाल बीत गया यही तर्कणायें करते-करते । तर्कणायें ही क्यों, मैंने स्वयं जा-जाकर देखा है चारों गतियों में, स्वयं धार धारकर देखा है पाँचों इन्द्रियों को और दशों प्राणों को और स्वयं ओढ़-ओढ़कर देखा है छहों कायों को, पर उस 'मै' का पता नहीं चला कहीं भी मुझे, जिसे खोजने का उद्देश्य लेकर कि यह महा-पुरुषार्थ प्रारम्भ किया था मैने । चलता भी कैसे ? घर में खोई हुई सूई को सड़क पर खोजने जाऊँ तो क्या मिलेगी ? 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर मैंने उसे आकाश में खोजा तथा खोजा ऊपर संकेत किये गये विभिन्न जाति के चौरासी लाख शरीरों में । कैसे पता चलता उसका ? 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर मैंने खोजा स्त्री व पुरुष में, काले-गोरेपन में धनवान व निर्धनों में प्राकृतिक सुन्दरताओं व विकारों में, तूफानों में व बाढ़ों में, झोपड़ियों में व महलों में। पर कैसे मिलता वह वहाँ, जबकि वहाँ वह था ही नहीं ? और आज भी इस उन्नत विज्ञान की सहायता से बड़े-बड़े आविष्कारों के द्वारा अनुसन्धानशालाओं में, मैं बराबर खोज रहा हूँ इसको, पर व्यर्थ । ४. अन्तस्तत्त्व आज परम सौभाग्य से इन वीतराग गुरुदेव की शरण को प्राप्त हो, मानो मैं कृतकृत्य हो गया हूँ । इतने काल तक इसकी खोज के पीछे व्याकुल होकर भटकता हुआ मैं आज इनकी कृपा से इस रहस्य को पाकर कितना सन्तुष्ट हुआ हूँ कह नहीं सकता, मानो मेरा भ्रम ही मिट गया है। आज उसे जानकर मुझे स्वयं अपने ऊपर हँसी आ रही है। कितनी सरल सी बात थी और कितना भटका इसके पीछे । यह भ्रम की ही कोई अचिन्त्य महिमा थी, जो आज तक मुझे इसके दर्शन नहीं होने देती थी । आज गुरुदेव के प्रसाद से यह भ्रम दूर हो गया और मैं जान पाया कि वह मेरे अत्यन्त निकट है, जिसे मैं इतनी-इतनी दूर खोजने गया । Jain Education International विचारिये तो सही कि कोई हीरे की अंगूठी आप तिजोरी में रखने 'जाते हो, मार्ग में 'मैं' मिल जाऊँ और आपको कोई आवश्यक कार्य बता दूं । आप अंगूठी को अपनी अंगुली में पहनकर काम में जुट जायें। साँझ पड़े घर आयें तो अंगूठी याद आये । हैं ! कहाँ गई ? तिजोरी में पुनः पुनः देखें, सन्दूक खोलें, रसोई घर में एक बर्तन को उठाकर और कभी दूसरे को, सम्भवतः उन्हें ठोक ठोककर भी देखने लगें, कि कहीं ये बर्तन निगल ही न गये हों उसे । और व्याकुलता में न मालूम क्या-क्या करने लगें। पर क्या इस प्रकार वह अंगूठी मिलेगी ? यदि मैं आपसे पूछें कि क्यों जी, उस अंगूठी का ढूंढना सरल है कि कठिन, तो क्या कहोगे ? न सरल कहते बनता है न कठिन । जब तक नहीं पाती तब तक कठिन और अंगुली पर दृष्टि जाने के पश्चात् क्या सरल और क्या कठिन ? ढूंढने का प्रश्न ही कहाँ है ? और यह गई ही कहाँ थी ? इसका ढूँढना तो न सरल था न कठिन, मेरे भ्रम का दूर होना ही कठिन सा था । बस तो इस प्रकार भो चेतन ! तू व्यर्थ ही इधर-उधर भटक रहा है। जिसे तू खोज रहा है वह तो यहाँ ही है, तेरे अत्यन्त निकट । निकट भी क्या, तू स्वयं ही तो है वह । किधर देख रहा है बाहर की ओर ? उधर कुछ नहीं है, उधर तो यह चमड़े हड्डी का कुछ ढेर मात्र ही पड़ा है। वह शरीर है, तू नहीं। इधर देख भाई ! इधर देख । अरे ! फिर उधर ही ? उधर नहीं, इधर देख। मैं जिस ओर संकेत कर रहा हूँ, उधर देख । अरे! फिर उधर ही ? अरे भाई, देख इस अंगुली की बिल्कुल सीध में, उस निशाने पर, जहाँ से यह मैं की ध्वनि चली आ रही है, जहाँ से शान्ति की इच्छा प्रकट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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