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________________ ७. जीव-तत्त्व ३. स्थावर काय में जीवन सिद्धि यदि बकरी आदि को जीव स्वीकार भी किया तो गाय की अपेक्षा उसमें प्राणों की कमी देखते हुये । और यही कारण है कि आज जहाँ मानव की रक्षा के लिये प्रत्येक देश में शक्तिशाली राज्य स्थापित हैं, वहाँ अन्य जीवों की रक्षा के लिये कोई शासक या समाज नहीं है। अधिक से अधिक कहीं दिखाई भी दी तो गोरक्षक समाज मिलती है। इससे भी आगे कोई बढ़ा तो पशु-पक्षी को जीव की कोटि में गिन लिया। इन बेचारे मक्खी, मच्छर, चींटी, भिर्र, सर्प, बिच्छू, मेंढक, मछली आदि की बात पूछने वाला यहाँ कोई नहीं है। फिर भी यदि समझाने बुझाने पर कोई और कुछ आगे बढ़े भी तो प्रत्यक्ष में चलते फिरते दीखने वाले इन स्थूल दो इन्द्रिय तक के जीव को भले ही स्वीकार कर ले परन्तु माइक्रोस्कोप से दीखने वाले छोटे शरीर के धारी उस ही जाति के जीवों को, तथा पाँच भेदरूप पृथ्वी से वनस्पति पर्यन्त तक के एकेन्द्रिय जीवों को कौन जीव स्वीकार करता है ? इनको जीव कहना उनकी दृष्टि में मानो कुछ कपोल कल्पना सी लगती है परन्तु ऐसा नहीं है, अपनी स्थूल दृष्टि के कारण ही वह ऐसा कहता है। भाई ! तू आया है शान्ति की खोज में। तू उन लोगों की अपेक्षा भिन्न रुचि लेकर आया है। अतः प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा जानी गई इस सम्पूर्ण जीव-राशि को स्वीकार कर, क्योंकि ऐसा स्वीकार किए बिना तू अपने जीवन को संयमित न बना सकेगा । यदि केवल स्थूल चलते फिरते जीवों के सम्बन्ध में संयमित बना भी, तो आगे जाकर पूर्ण-संयमित न हो सकेगा। इन सूक्ष्म व एकेन्द्रिय प्राणियों को बाधा न पहुँचाने का विवेक तुझमें जागृत न हो सकेगा। अविवेक के रहते शान्ति की पूर्णता न कर सकेगा। और इनको स्वीकार कर लेने पर तू इस व्योममण्डल के एक-एक प्रदेश पर जीवतत्त्व के दर्शन करेगा तथा उसके आधार पर निजतत्त्व के और उसके स्वभाव के अर्थात् शान्ति के ।' ३९ ३. स्थावर काय में जीवन सिद्धि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति, इन पाँचों में स्थूल दृष्टि से देखने पर चेतन तत्त्व का ग्रहण यद्यपि नहीं होता, जड़वत् से भासते हैं, परन्तु इन पाँचों में से वनस्पति शरीरधारी प्राणियों के सम्बन्ध में कुछ सूक्ष्म विचार करने से उनके प्राणधारी होने का विश्वास इस अल्प परोक्ष ज्ञान से भी हो सकना सम्भव है। आज के विज्ञान ने भी उनमें प्राणों को स्वीकार किया है। तू भी इन्द्रिय- प्रत्यक्ष द्वारा वनस्पति में प्राणों के चिन्ह देख सकता है। देख योग्य आहार जल आदि के न मिलने पर वे बेचारे कुम्हला जाते हैं, पीड़ा को न सह सकने के कारण बेहोश हो जाते हैं, और आहार मिल जाने पर पुनः सचेत हो जाते हैं, प्रसन्न होकर नाच उठते हैं। कुछ विशेष जाति की मांसभक्षक वनस्पति झाडियां व घास भी देखेन में आती हैं। अफ्रीका के जंगलों में झाड़ियों के रूप में और भारत के वनों में घास के रूप में पाई जाने वाली यह वनस्पति कितने भयानक रूप से पशु पक्षी या मनुष्य को पकड़कर उसका खून चूस लेती है, यह बात सुनी होगी। नहीं सुनी हो तो सुन। इस जाति की झाड़ियां खूब लम्बी-लम्बी बड़ी मजबूत कांटेदार टहनियों वाली पाई जाती हैं, ऊपर की ओर मुँह किये खड़ी रहती हैं, और इसी प्रकार से इस जाति की घास भी। अपने शिकार को निकट आया जान वे एकदम सब की सब टहनियां झुककर उसके ऊपर गिर पड़ती हैं और लिपटकर इतनी फुर्ती से उसके शरीर को बांध लेती हैं कि वह बेचारा स्वयं यह नहीं जान पाता कि अकस्मात् ही यह क्या आफत आ गई, यहाँ तो कुछ भी नहीं दिखाई देता । पर वनस्पति में प्राण न स्वीकार करने वाला वह मानव यह न जानता था कि वनस्पति का रूप धारण किये हुये उसका भक्षक यहाँ विद्यमान है। उन टहनियों के अग्रभाग की नोकें उसके शरीर में प्रवेश करके कुछ ही देर में उसका रक्त चूस लेती हैं और ढाँचा मात्र शेष रह जाने पर उस कलेवर को छोड़कर पुनः पूर्ववत् ऊपर की ओर मुँह करके खड़ी हो जाती हैं। आहार या जल में विष मिलाकर सिंचन किये जाने पर पेड़ पौधों की मृत्यु होती देखी जाती है। इस प्रकार वनस्पतियों में मनुष्योंवत ही आहार ग्रहण करने की क्रियायें व भावनायें स्पष्ट देखने में आती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु काय के जीवों में इस प्रकार स्पष्ट रीति से प्राणों की सिद्धि नहीं होती जैसी कि वनस्पति में, परन्तु फिर भी खानों में पड़े सर्व ही खनिज पदार्थों के शरीरों की वृद्धि का होना वहाँ उनके अन्दर जीवन को दर्शा रहा है, तथा खान में से निकल जाने पर उनकी वृद्धि का रुक जाना उनकी मृत्यु को या प्राणों के निकल जाने को दर्शा रहा है, क्योंकि खान में पड़े पत्थर की भाँति ये अब बढ़ते दिखाई नहीं देते। बाढ़ के समय जल का, तूफान के समय वायु का और पवन से ताड़ित होकर अग्नि का प्रत्यक्ष दीखने वाला प्रकोप जिसके सामने मनुष्य की शक्ति हार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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