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________________ ७. जीव-तत्त्व २. जीव राशि (२) जानने के द्वार इन्द्रिय कहलाते हैं। वे पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र व श्रोत्र । इन सबको आप अच्छी तरह जानते हैं । इन पाँचों इन्द्रियों की अपेक्षा जीव भी पाँच प्रकार के होते हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय के धारी होने के कारण पृथ्वी आदि हैं एकेन्द्रिय जीव, जिनमें केवल छूकर जानने की शक्ति है। इनकी सिद्धि आगे की जायेगी। स्पर्शन तथा रसना (जिह्वा) इन दो इन्द्रियों के धारी होने के कारण पेट के बल रींगकर चलने वाले जोख, केंचुआ, कीड़ा आदि हैं द्वीन्द्रिय जीव । स्पर्शन रसना और घ्राण (नासिका) इन तीन इन्द्रियों के धारी होने के कारण छोटे-छोटे अनेक पाँव पर चलने वाले चींटी, कनखजूरा आदि हैं त्रीन्द्रिय जीव । इन तीन के साथ नेत्रेन्द्रिय को भी धारण करने के कारण उड़ने वाले समस्त क्षुद्र प्राणी मक्खी, मच्छर, भँवरा आदि हैं चतुरिन्द्रिय जीव। और पांचों इन्द्रियों को धारण करने वाले मनुष्य पशु-पक्षी आदि हैं पंचेन्द्रिय जीव । इनमें भी मनुष्य तो मन नाम की छठी इन्द्रिय से युक्त होने के कारण समनस्क या संज्ञी ही होते हैं, परन्तु पशु-पक्षियों में समनस्क तथा अमनस्क दोनों विकल्पों वाले पाये जाते हैं । जितने कुछ भी परिचय में आते हैं वे सब प्राय: समनस्क हैं । अमनस्क के दृष्टान्त अतिविरल हैं। (३) प्राण १० होते हैं—पाँच तो उपर्युक्त इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त मन, वचन, काय, श्वासोच्छवास और आयु । इनको धारण करने क कारण जीव प्राणी कहलाते हैं। इस अपेक्षा से वे ६ प्रकार के हैं । एक, दो व तीन प्राणों वाला कोई जीव नहीं होता । कम से कम चार प्राणों वाले होते हैं। आयु, श्वासोच्छवास और काय ये तीन सभी में पाये जाते हैं। इनके साथ एक स्पर्शनेन्द्रिय मिल जाने के कारण सकल एकेन्द्रिय जीव चार प्राणधारी हैं। पाँच प्राणधारी कोई जीव नहीं होता, क्योंकि रसना इन्द्रिय युक्त हो जाने पर द्वीन्द्रिय जीव में युगपत दो प्राणों की वृद्धि हो जाती है-चखकर जानने की शक्ति तथा बोलने की शक्ति । इसलिये सकल द्वीन्द्रिय जीव छ: प्राणवाले हैं । घ्राणेन्द्रिय युक्त होने से त्रीन्द्रिय जीव सात प्राणधारी, नेत्रेन्द्रिय युक्त होने से चतुरिन्द्रिय जीव आठ प्राणधारी और श्रोत्रेन्द्रिय युक्त होने से पञ्चेन्द्रिय जीव नौ प्राणों के धारी हैं। इनमें अमनस्क तो नौ ही प्राणों वाले हैं परन्तु एक मन और मिल जाने से समनस्क जीव दस प्राणवाले होते हैं। इनमें चार प्राणधारी एकेन्द्रिय जीव के अनेकों भेद-प्रभेद हैं, जो आगे 'काय' वाले विकल्प में बताये जाने वाले हैं। (४) काय कहते हैं शरीररूप परमाणु पिण्ड को। इसकी अपेक्षा देखने पर जीव दो प्रकार के होते हैं- स्थावर तथा त्रस । भय का कारण उपस्थित हो जाने पर भी जो स्वयं अपनी रक्षार्थ भागने दौड़ने के लिये समर्थ नहीं हैं, वे स्थावर कहलाते हैं और इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त जीव त्रस कहे जाते हैं । स्थावर जीवों का शरीर पाँच जातियों का होता है-प्रथम है पार्थिव जाति जिसमें मिट्टी, पाषाण, कोयला धातु आदि सभी खनिज पदार्थ सम्मिलित हैं। द्वितीय है जलीय जाति जिसमें जल, हिम, ओस आदि सम्मिलित हैं। तृतीय है तेजो जाति जिसमें अग्नि, ज्वाला, चिनगारी, अंगार आदि सम्मिलित हैं । चतुर्थ है वायु जाति जिसमें धनञ्जय आदि अनेक प्रकार की वायु सम्मिलित हैं और स्थावर काय की पञ्चम जाति है वनस्पति, जिसका बड़ा लम्बा चौड़ा विस्तार है । माइक्रोस्कोप के भी अगम्य जिस सूक्ष्म निगोद-राशि का पहले वर्णन किया जा चुका है वह इसी में सम्मिलित है। आगे भोजन-शुद्धि वाले प्रकरण में माइक्रोस्कोप गम्य जिस बैक्टेरिया का कथन किया जाने वाला है, वह भी वनस्पति काय में ही गर्भित है । इनको आदि लेकर फूई, काई, घास, झाड़ी, बेल, पौधा, वृक्ष, पत्ता, प्रवाल, फूल, फल, जड़ी-बूटियाँ, अन्न, काष्ठ, कपास आदि सब वनस्पति की ही सन्तान हैं। त्रसजीव यद्यपि द्वीन्द्रिय से लेकर समनस्क तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पर्यन्त अनेक प्रकार के हैं, परन्तु उन सबकी काय एक मांसास्थि पञ्जर वाली जाति की ही होती है। देव व नारकी का शरीर यद्यपि मांसजातीय नहीं माना गया है तदपि उसका संग्रह इसी भेद में कर लिया जाता है । इस प्रकार काय की अपेक्षा जीवराशि कुल छ: प्रकार की हो जाती है—पाँच प्रकार की स्थावरकाय और एक प्रकार की त्रसकाय। आज का मानव जीवों के इन सर्व भेद-प्रभेदों में से एक मनुष्य को ही जीव मानता है, अन्य को नहीं । आज बकरी आदि तक को भी वह अपनी भोग की वस्तु समझता है तथा उनके भी प्राण हैं, उनको भी पीड़ा होती होगी', इस बात का उसे भान नहीं है । इससे आगे भी यदि बढ़ा तो मनुष्य व गाय दो को ही जीव मानने लगा, अन्य को नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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