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७. जीव-तत्त्व
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२. जीव राशि
वहा
भी? इधर से उधर दौड़ने अथवा जीने-मरने के सिवा फुर्सत ही कहाँ थी, कुछ और करने की? कई बार तो पूरी तरह जन्मने भी नहीं पाया कि मर गया। और यदि पूरा जन्मा भी तो कितना छोटा था मेरा शरीर जो किसी को दिखाई भी न पड़ सके। माइक्रोस्कोप के भी तो गम्य नहीं था वह ? पहाड़ व लोहखण्ड में भी घुसकर आर-पार हो सकता था वह । निगोद कहा करते थे ज्ञानी लोग उस समय मुझे । सर्वसाधारणजन तो मेरी सत्ता से भी अपरिचित थे । न देख सकने के कारण, वे यह भी नहीं जान पाते थे कि मैं कोई हूँ भी या नहीं।
छ पता न चला. तो पथ्वी बनकर. जल बनकर. अग्नि बनकर. वाय बनकर पडा रहा सदियों लोगों की ठोकरें खाता. इधर-उधर बिखरता या उबाला जाता आग पर पवन के द्वारा ताडित किया जाता, पंखों की मार सह पड़ा रहा सदियों, कि कभी तो कहीं तो स्पर्श कर ही जाऊंगा मैं, 'मुझ' को। पर निराश, कुछ न दीखा। वहाँ से भी भागा, वनस्पति बन गया, कभी जल पर की काई बना और कभी अचार पर की फई, कभी घास बना और कभी झाड़ी, कभी बेल तो कभी वृक्ष, कभी पत्ता तो कभी फल, कभी खट्टा बना तो कभी मीठा, कभी सुगन्धित तो कभी दुर्गन्धित । क्या-क्या रूप धारे थे उस समय मैंने? याद कर-करके कलेजा कांप उठता है। चीरा जाकर और अग्नि में जल-जलकर अनेकों कष्ट सहे, इस 'मैं' को स्पर्श करने के लिये पर निराश, कुछ न देखा वहाँ भी। स्पर्श ही न कर पाया, फिर चखने, सूंघने, देखने, सुनने व विचारने का तो प्रश्न ही क्या? निराश लौट पड़ा। सर्व-साधारणजन मुझे सोचते रहे जड़, केवल अपने भोग की कोई वस्तु, परन्तु मैं भले यह न जानता हूँ कि मैं क्या हूँ, पर उस समय भी इतना अवश्य जानता था कि मैं वह नहीं हूँ जो वे समझते थे मुझे । चित्त मसोसकर रह जाता था, क्योंकि शक्ति ही नहीं थी बताने की।
छूने मात्र से तो पता न चला, चलो अब चखकर भी देखो, सम्भवत: कुछ पता चल जावे और इस अभिप्राय को रखकर, धारण किये लट व केंचुआ आदि के अनेकों रूप, कभी कुछ और कभी कुछ । सूंघने, देखने, सुनने व विचारने की चिन्ता किये बिना, केवल छूकर व चखकर खोज करनी चाही मैंने अपनी, पर निरर्थक।
निराश दौड़ा, चींटी, कनखजूरा आदि अनेकों रूपों में, जहाँ छूने व चखने के अतिरिक्त सूंघने की शक्ति का भी प्रयोग किया मैने । इतना ही नहीं, मक्खी, भंवरा आदि बनकर देखने के यन्त्र को भी प्रयोग में लाया और चिड़िया, गाय, मछली, व मनुष्यादि बन-बनकर सुनने के, यहाँ तक कि विचारने तक के यन्त्रों का निर्माण कर डाला, पर किसी प्रकार भी तो उस रहस्यात्मक 'मैं' का पता न चला । क्या आकाश में, क्या पृथ्वी पर और क्या जल में, कहां नहीं खोजा मैंने इसे?
अत्यन्त दु:ख व पीड़ा की भी परवाह न करते हुए, मैं इसकी खोज के लिये नारकी तक बना, पर इसका पता न चला। तात्पर्य यह कि नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य व देवों की चौरासी लाख योनियों में; पृथ्वी, अप, तेज, वायु व वनस्पति भूतों में, भ्रमण करते-करते आज तक न मालूम कहाँ-कहाँ घूमा, कितना समय बीत गया, तथा इस काल में क्या-क्या दुःख सहे इसकी खोज के लिये, पर इस 'मैं' का पता न चला। छोटे से छोटा माइक्रोस्कोप से भी न दीखने वाला तथा बड़े से बड़ा पर्वत सरीखा शरीर बनाया, पर उसका पता न चला।
२. जीव राशि—यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकरण में जीवतत्त्व की लोकप्रसिद्ध ८४ लाख योनियों का अर्थात् उनकी अनेकविध जातियों का परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। आगे साधना खण्ड में प्राणसंयम का विवेचन करने के लिये तथा उसे ठीक प्रकार से समझने के लिये जीव की इन विविध जातियों का अवधारण अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये इन सभी का स्पष्ट उल्लेख यहाँ कर देना उचित प्रतीत होता है।
जीव जातियों का यह विभाजन प्रधानत: ४ अपेक्षाओं से किया जा सकता है.---गतियों की अपेक्षा, इन्द्रियों की अपेक्षा, प्राणों की अपेक्षा और कायकी अपेक्षा । इन चारों अपेक्षाओं का पृथक्-पृथक् कथन करता हूँ।
(१) गतियों की अपेक्षा कथन करने पर जीव चार प्रकार के हैं—नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव । इनमें से नारक, मनुष्य तथा देव तो एक-एक ही प्रकार के हैं, परन्तु तिर्यञ्च गति का विस्तार बहुत अधिक है । पृथ्वी, अप, तेज वायु, वनस्पति, कीट, पतंग, पशु, पक्षी सब तिर्यञ्च हैं । माइक्रोस्कोप से न दीखने वाली उपर्युक्त सूक्ष्म जीव-राशि भी इसी में अन्तर्भूत है।
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