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७. जीव-तत्त्व
१.
मैं की खोज, २. जीव राशि, ३. स्थावरकाय में जीवन सिद्धि, ४. अन्तस्तत्त्व, ५. शान्ति मेरा स्वभाव, ६. शान्ति की खोज, ७. जल में मीन प्यासी ।
१. 'मैं' की खोज — अहो ! चैतन्यघन का अतुल प्रकाश, जिसने पुन: पुन: प्रेरित करते हुये तथा अन्तरंग में चुटकियां भरते हुये इस गहन भोग विलास के अन्धकार में भी, मुझे आज यह सौभाग्य प्रदान किया कि किंचित मात्र अपनी महिमा के दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो सकूँ। धर्म की जिज्ञासा के सार-स्वरूप शान्ति तथा उसकी प्राप्ति के लिये कुछ प्राथमिक आवश्यक सामान्य बातें जान लेने के पश्चात्, आज मेरे अन्दर यह जानने की जिज्ञासा जागृत हो उठी है कि मैं कौन हूँ, जिसमें यह शान्ति की पुकार उठ रही है, अर्थात् जीव तत्त्व क्या है ?
बहुत प्रयत्न किया है, गुरुजनों ने मुझे मेरी महिमा दर्शाने का, मुझे मेरा स्वरूप बताने का, पर देखिये कितने आश्चर्य की बात है कि नित्य ही 'मैं हूँ', 'मैं हूँ' की पुकार करता मैं आज तक 'मैं' को जान न सका। क्या-क्या कल्पनायें बनाता रहा अपने सम्बन्ध में । कभी विचार करता कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की जो आकृतियाँ दीख रही हैं, वे ही 'मैं' हूँ । कभी विचार करता कि ये जो पुत्र, स्त्री आदि परिवार दिखाई दे रहा है, अपने चारों ओर, वही 'मैं' हूँ । कभी विचार करता कि ये जो गृह, स्वर्णादि कुछ आकर्षक पदार्थ दिखाई दे रहे हैं वही 'मैं' हूँ । अर्थात् इन सबमें 'मैं', और मुझमें 'ये सब' ओत प्रोत हो रहे हैं, मानो ।
देखो कितना बड़ा आश्चर्य है कि अपने को देखने की इच्छा करते हुये मैं स्वयं कहाँ कहाँ खोजता फिरता हूँ इस 'मैं' को । इस महत् के अर्थात् इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त आकाश के एक-एक प्रदेश पर इधर से उधर, और उधर से इधर टक्करें मार-मार कर मैंने खोज की इसकी । कैसी दशा बनी हुई थी उस समय मेरी कि बिना सुधबुध उस प्रदेश से इस पर और इससे उस पर फिर रहा था मारा-मारा, तृषातुर मृगवत् । इस प्रदेश पर दिखाई देती है कुछ मेरी चमक-सी, भागा उधर । अरे यहाँ तो कुछ नहीं । नहीं-नहीं, यहाँ नहीं थी, वह देख कुछ दूरी पर दिखाई दे रही है, कितनी तेज चमक, आँखें चुन्धिया रही हैं जिसे देखकर । भागा वहाँ, पर यह क्या ? यहाँ भी कुछ नहीं । और इसी प्रकार बेचैन बेहोश घूमता था, मारा-मारा।
कितनी तीव्र गति थी उस समय मेरी, अभी पाताल के उस छोर पर और अगले ही क्षण लोक के शिखर पर, बिल्कुल अपने पिता सिद्ध-प्रभु के निकट । अभी ऊर्ध्व-लोक में देवों के निकट और अगले ही क्षण अधो-लोक में नारकियों के निकट । अभी मध्य लोक की एक पृथ्वी पर और अभी असंख्यात योजन दूर उस अन्तिम पृथ्वी पर । अभी समुद्र में और अभी वायुमण्डल मे । अभी इन चलते-फिरते दिखने वाले मनुष्य, पशु व पक्षियों के शरीर में और अगले ही क्षण वनस्पतियों में । कहाँ तक गिनाऊँ ? एक प्रदेश भी तो इस आकाश का खाली नहीं छोड़ा, जहाँ जाकर मैंने 'मैं' को न खोजा हो । कितना व्यग्र था उस समय इसकी खोज के पीछे, कि आने और जाने, जीने और मरने के सिवाय, मुझे और कुछ चिन्ता ही नहीं थी । एक एक श्वास में अठारह अठारह बार बदल डाला मैंने अपना चोला । पर मृगतृष्णा थी, कोरा बालू का ढेर, कुछ भी न था वहाँ । जाता, दौड़ता, जन्म लेता और निराश हो जाता । तुरन्त ही आगे कुछ प्रतीत होता, बस मर जाता, वहां जाकर जन्म लेता, और फिर निराशा हो जाता। किसी कारणवश रोता- रोता शिशु जिस प्रकार स्वयं भूल जाता है कि क्यों रोना प्रारम्भ किया था उसने, केवल याद रह जाता है रोना उसे, उसी प्रकार दौड़ते-दौड़ते, एक श्वास में अठारह अठारह बार मरते, मैं स्वयं भूल गया कि क्यों यह दौड़ धूप या जीना मरना प्रारम्भ किया था मैने ? केवल याद रह गया जल्दी-जल्दी जीना और मरना मात्र ।
खाने की सुध थी न पीने की, न किसी से बोलने की न पूछने की, न कुछ सूंघने की न देखने की, न सुनने की न विचारने की, बेहोश हो गया था, थककर चूर-चूर । छूकर जान तो सकता था उस समय, पर कहाँ थी होश मुझे छूने की
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