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६. तत्त्वार्थ
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३. तत्वार्थ
शीतलत्व, जीव का स्वभाव चेतनत्व । इस प्रकार तत्त्व शब्द का अर्थ हुआ वह का वहपना, अर्थात् जिस किसी भी पदार्थ का, द्रव्य का अथवा भाव का कथन करना अभिप्रेत है, उसका स्वभाव । इस प्रकार दृष्टि को विशालता प्रदान करता है यह शब्द, द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाता है यह शब्द । वह कैसे, सो देखिए । स्वभाव कहते हैं किसी पदार्थ की उस जातीयता को जो कि उस ही प्रकार के अनेक पदार्थों में अनुगत हो। जैसे अनेक अग्नियों में अनुगत एक अग्नित्व अर्थात् एक अग्नि-जातीयता, अनेक जीवों में अनुगत एक चेतनत्व अर्थात् एक चेतन-जातीयता, अनेक जड़ परमाणुओं में अनुगत एक जड़त्व अर्थात् एक जड़-जातीयता।
इस दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि द्रव्य और तत्त्व में कुछ भेद है। तत्त्व सामान्य है और द्रव्य उसके विशेष । भले जीवद्रव्य अनेक हों परन्तु सब में अनुगत चेतनत्व या चेतनतत्त्व एक है। भले परमाणु अनेक हों परन्तु उन सब में अनुगत जड़त्व या जड़तत्त्व एक है । इस प्रकार यह शब्द द्वैत में अद्वैत उत्पन्न करता है और बताता है कि जीवतत्त्व एक है, भले ही जीवद्रव्य अनेक हुआ करें । इसी प्रकार अजीवतत्त्व एक है, भले ही अजीव द्रव्य अनेक हुआ करें । इसी प्रकार आश्रव-बन्ध तथा संवर-निर्जरा ये चारों तत्त्व भी एक-एक हैं, भले आश्रव तथा बन्ध के अन्तर्गत आने वाले रागद्वेषादि भाव अनेक हों अथवा संवर निर्जरा के अन्तर्गत गिनी जाने वाली व्रत, समिति, गुप्ति आदि क्रियायें तथा वैराग्य आदि भाव अनेक हों । इसी प्रकार मोक्षतत्त्व भी एक है भले ही मुक्तजीव अनेक हुआ करें । तत्त्व शब्द के द्वारा निर्दिष्ट यह अद्वैत-दृष्टि शान्तिपथ का प्राण है क्योंकि इस दृष्टि से देखने पर न रहता है मैं-तू का तथा य का भेद, न रहते हैं अच्छे-बुरे के तथा हेय-उपादेय आदि के द्वन्द्व, और न रहता है करने-धरने का विकल्प । प्रकट हो जाती है व्यापक समता, शान्ति, आनन्द ।
३. तत्त्वार्थ-तत्त्व मात्र न कहकर तत्त्वार्थ कहना और भी अधिक रहस्यात्मक है । वह कैसे? देखिये-किसी भी शब्द का अर्थ बताते या समझते समय कोषकार का अथवा विद्यार्थी का लक्ष्य किधर होता है-उन शब्दों की ओर जिनके द्वारा कि उस अर्थ का प्रतिपादन किया जा रहा है, अथवा उस पदार्थ की ओर जिसके प्रति वे शब्द संकेत कर रहे हैं ? 'गाय' शब्द का अर्थ पुस्तक में लिखा 'गाय' अथवा बोला या सुना गया 'गाय' शब्द है या कि है उस शब्द का वाच्य, जीता जागता वह पशु-विशेष जिसके दूध का हम नित्य पान करते हैं। अत: स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ पद में प्रयुक्त 'अर्थ' इस बात की चेतावनी देता है कि इस प्रकरण में जीव आदि शब्दों द्वारा जिन सात बातों या तत्त्वों का उल्लेख किया जाना है, यहाँ उन शब्दों का अथवा उनकी लम्बी चौड़ी व्याख्याओं का श्रद्धान कराना इष्ट नहीं है, प्रत्युत उन भावों का या स्वभावों का श्रद्धान कराना इष्ट है जिनके प्रति कि ये शब्द अथवा व्याख्यायें संकेत कर रहे हैं। वे भाव भी कहीं बाहर में नहीं हैं, प्रत्युत स्वयं आपके मनोलोक में, बुद्धि लोक में, अथवा हृदय लोक में निहित हैं। इसलिये न वे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के विषय हैं और न आगम अथवा अनुमान के। केवल स्वानुभव-प्रत्यक्ष ही एकमात्र शरण है उनको जानने के लिये।
सम्प्रदाय को अवकाश.नहीं इस वैज्ञानिक मार्ग में । इसका साया भी यहाँ न पड़ने पाये, ऐसी सावधानी रखने की आवश्यकता है। अत: इन जीवादि सात बातों का स्वरूप कुछ इस प्रकार से सुनना या विचारना इष्ट है, जिस पर विचार करके तथा अपने जीवन में उस-उस उपाय से उस-उस विषय को पढ़ने का प्रयत्न करके उसका किंचित अनुभव हो सके । उसका अनुभव हो जाने के पश्चात् ही शान्ति-मार्ग प्रारम्भ होगा। परन्तु उसको अनुभव करने से पहले भी यह आवश्यक है कि एक बार शब्दों में उसे अवश्य ग्रहण कर लिया जाय, और तर्क व युक्ति से उसकी सत्यार्थता का निर्णय कर लिया जाय। उस अपने निर्णय को वीतराग-प्रणीत आगम से भी मिलान करके देख लिया जाय । क्योंकि बिना ऐसा किये अव्वल तो मैं अनुभव करने का प्रयत्न ही किस विषय के प्रति करूँगा और यदि अन्धों की भाँति शब्दों का स्पष्ट रहस्यार्थ समझे बिना करने लगा तो लाभ क्या होगा?
अत: अब आगे के प्रकरणों में इन सात बातों का ही क्रमश: विस्तृत विवेचन चलेगा। लम्बा कथन है। सुनते-सुनते ऊब न जाना, सारा का सारा सुनना । बीच में एक भी प्रकरण के छूट जाने पर आगे के प्रकरणों का रहस्य पकड़ में न आ सकेगा। बिना क्रम से और बिना पूरा सुने अभीष्ट की सिद्धि होना असम्भव है।
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