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________________ ९. विवेक-ज्ञान ४. षट्कारकी स्वतंत्रता अपने आज के विकल्पात्मक संसार पर दृष्टिपात करके यदि में इसका विश्लेषण करूँ तो स्पष्टत: यह बात ध्यान में आ जाती है कि क्यों और किस प्रकार मैं आज प्रतिक्षण नये-नये विचार व विकल्प उठा-उठाकर उनमें स्वयं फंसा हुआ व्याकुल बना रहता हूँ । इन विकल्पों का मूल वास्तव में शरीर है, क्योंकि जितने भी विकल्प हो रहे हैं वे सब उसकी इष्टता के लिये हो रहे हैं । मेरे आजके विकल्पों में मुख्य धनोपार्जन का विकल्प है, धनोपार्जन की इच्छा केवल पंचेन्द्रिय विषयों की पूर्ति के लिये है और पंचेन्द्रियों का आधार शरीर है । इसी प्रकार धनोपार्जन कुटुम्ब पालने के अर्थ भी है और कुटुम्ब-पालन भी इसी लिये है कि उसको मैं इस शरीर का रक्षक व वृद्धावस्था में इसका सहायक मानता हैं। इन विषयों में, कटम्ब में या धनोपार्जन में बाधा पड़ जाने पर मझे चिन्ता होती है। उस चिन्ता की निवत्ति के लिये मैं और-और विकल्प करता हूँ और इस प्रकार एक जाल में उलझ जाता हूँ । ज्यों-ज्यों इस जाल से निकलने का प्रयत्न करता हूँ, त्यों-त्यों मकड़ी के जाल में उलझी मक्खीवत् अधिक-अधिक उलझता जाता हूँ । इन विकल्पों से निवृत्ति पाने की इच्छा रखते हुये भी मैं इनसे क्यों नहीं निकल पा रहा हूँ, इसका कारण ही नीचे बताया जाता है । इसका कारण स्व-पर-पदार्थों का मिश्रण है। मिश्रण भी एक प्रकार से नहीं, दो प्रकार से। एक तो फ़िजीकल अर्थात् प्रादेशिक रूप से, क्षेत्र रूप से और दूसरा मैण्टल अर्थात् मानसिक रूप से । यहाँ प्रादेशिक मिश्रण की तो बात छोड़ दीजिये क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। मैण्टल या मानसिक मिश्रण की बात विचारणीय है, क्योंकि प्रादेशिक मिश्रण मेरे लिये विशेष बाधाकारक नहीं है, मानसिक मिश्रण ही मुख्य बाधक है जोकि मेरी शान्ति को घात रहा है। इस मानसिक मिश्रण का आधार मेरे अन्दर में पड़ा एक विश्वास है जिसके आधार पर मैं सर्व-पदार्थों की स्वतन्त्रता स्वीकार न करके उन्हें परतन्त्र बनाने का प्रयत्न किया करता हूँ। उनकी परतन्त्रता को ही मैं भ्रमवश अपनी स्वतन्त्रता समझता हूँ। बात केवल इतनी ही नहीं है, मैं अपनी स्वतन्त्रता को भी स्वीकार नहीं करता, इसको परतन्त्र मान बैठता हूँ। मैं व्यक्तिगत रूप में अकेला ही ऐसा कर रहा हूँ ऐसा भी नहीं है । आप सब तथा सर्व लोक के अनन्तानन्त प्राणी भी उसी विश्वास के आधीन प्रवृत्ति कर रहे हैं । इस प्रकार कल बताई गई तीन कोटियों में से प्रथम दो कोटि के पर-पदार्थों को मैं अपने आधीन तथा अपने को उनके आधीन मान बैठा हूँ। इसी प्रकार से वे पर-पदार्थ भी मुझे अपने आधीन तथा अपने को मेरे आधीन मान बैठे हैं अर्थात् मेरे किये बिना उन पर-पदार्थों का कोई भी कार्य नहीं चल सकता और उनकी सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरी प्रेरणा पाकर ही वे चित्र-विचित्र कार्य कर रहे हैं और उनकी प्रेरणा पाकर ही मैं यह विकल्पात्मक राग-द्वेषादि कार्य कर रहा हूँ। मेरे पाले बिना कुटुम्ब का पोषण नहीं हो सकता और कुटुम्ब की सहायता के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। मेरे हिलाये बिना शरीर हिल नहीं सकता। और शरीर की सहायता के बिना मैं जान नहीं सकता। और इसी प्रकार अनेकों चिन्तायें तथा विकल्पात्मक पराश्रित धारणायें हैं । स्वतन्त्रता मिले तो कैसे मिले और परतन्त्रता में शान्ति कैसे जीवित रहे? मजे की बात यह कि इस प्रकार अधिकाधिक परतन्त्रता के पुरुषार्थ को ही शान्ति का पुरुषार्थ समझता हूँ। अधिकाधिक भोगों की प्राप्ति से शान्ति मिलेगी, भोगों की प्राप्ति इस शरीर की क्रिया से होगी, शरीर की क्रिया को मैं करूँगा इस प्रकार मैं अपनी शान्ति का वेदन कर लूँगा। अत: मेरा सर्व पुरुषार्थ शान्ति के लिये ही तो है। हे शान्ति-भण्डार चिदानन्द भगवान ! शान्ति तो स्वतन्त्रता में बसती है, परतन्त्रता में नहीं । अब इस परतन्त्रता को छोड़, स्वतन्त्र दृष्टि उत्पन्न कर, जिसमें प्रत्येक पदार्थ जड़ हो कि चेतन, स्व हो कि पर, स्वतन्त्र दिखाई देने लगे। सुन-सुनाकर या पढ़-पढ़ाकर यह कह देना मात्र पर्याप्त नहीं कि “हाँ हाँ, सर्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं, कोई किसी का नहीं, मैं पृथक् हूँ, शरीर पृथक् हैं” इत्यादि । इस प्रकार तो सभी कहा करते हैं। दो द्रव्यों की पृथकता का अर्थ इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाता कि उनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर लें। सत्ता त्रयात्मक होती है उत्पाद-व्यय ध्रौव्य स्वरूप अर्थात् बराबर बनी रहते हुये भी बराबर बदलते रहना उसका काम है। यह बात आगे बताई जाने वाली है। स्वभाव किसी दूसरे की सहायता नहीं मांगता, जिस प्रकार कि जल को शीतल बनाने के लिये किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं। सत्ता को उसी समय स्वतन्त्र माना कहा जा सकता है जबकि इसके तीनों अंशों को स्वतन्त्र मान लिया जावे, अर्थात् उसका बदलते रहना भी स्वतंत्र माना जावे। विचारिये तो सही कि किसी भी पदार्थ को बदलने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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