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९. विवेक-ज्ञान
४. षट्कारकी स्वतंत्रता
जीव के विभाव-भाव हैं । 'स्वभाव-भाव' निज-भाव या स्व-भाव कहलाते हैं और 'विभाव-भाव' पर भाव कहलाते हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्य के अपने भावों में ही स्व व पर का विभाजन करके द्वैत दर्शाना सूक्ष्म दृष्टि का कार्य है।
पर्याय या अवस्था कभी द्रव्य से जुदी होकर पृथक् नहीं रहती। द्रव्य स्वयं प्रति क्षण बदलता हुआ अनेक अवस्थाओं में से गुजरता है। अत: इन स्व व पर भावों या अवस्था-विशेषों से तन्मय अखण्ड-द्रव्य में भी किञ्चित् विजातीयता का आभास होने लगता है। यहाँ जड़ द्रव्य को छोड़कर केवल जीव-द्रव्य में ही उस विजातीयता की सिद्धि करते हैं। तहाँ जड़-द्रव्य में यथायोग्य रूप से स्वयं लगा लेना । जीव-द्रव्य एक विचित्र प्रकार का वस्तुभूत या सत्ताधारी अमूर्तीक पदार्थ है, कल्पना मात्र हवा नहीं है। वह अपने को भी जान सकता है और परको भी। जानना मात्र ही हुआ होता तो कोई हर्ज न होता । यहाँ जानने के साथ-साथ कुछ और भाव भी पैदा होता है । अपने को जानते हुये तो इसको स्व व पर दोनों ही पदार्थ दिखाई देते हैं, क्योंकि ज्ञान दर्पण के समान है। जिस प्रकार दर्पण
खते समय दर्पण तथा अन्य पदार्थों के प्रतिबिंब सब ही दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के सम्बन्ध में भी समझना। किन्तु पर को जानते हुये इसे निजरूप दिखाई नहीं देता। अपने को जानते समय इसका भाव अपने साथ तन्मय होता है और परको जानते समय परके साथ । तन्मय का अर्थ यहाँ उस पदार्थ रूप बन जाना नहीं क्योंकि चेतन का जड़ बन जाना तीन काल में भी सम्भव नहीं है। अपने को भूलकर केवल उस पदार्थ को ही देखना पर-पदार्थ के साथ तन्मयता कहलाती है। अपने साथ तन्मय होने के कारण पहला ज्ञान स्व-भाव है और परके साथ तन्मय होने के कारण दूसरा ज्ञान पर-भाव है । मानसिक संकल्प विकल्प, बौद्धिक तर्कणायें, राग-द्वेषादि कषायें तथा वासनायें उसका स्वरूप हैं।
इस प्रकार यथायोग्य रूप से अनेक प्रकार इन रागादिक भावों रूप अभ्यन्तरजगत को जीव का नहीं कहा जा सकता। यही विशुद्ध-अध्यात्म का भेद-विज्ञान है, जिसका ग्रहण अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि में ही होना सम्भव है । एक ज्ञान में ही विवक्षावश स्व व पर का द्वैत उत्पन्न कराया गया है। साधारण दृष्टि में तो स्व व पर की कल्पना अत्यन्त स्थूल है, पर यहाँ स्व-पर की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म है । पहले वाली स्थूल दृष्टि द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि है, पर यहाँ पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र नयका विषय है, जिसकी अपेक्षा जो बालक है उसे बूढ़ा नहीं कहा जा सकता और जो बूढ़ा है उसे बालक नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि में बालक व बूढ़ा पृथक्-पृथक् दो स्वतन्त्र व्यक्ति हैं । ज्ञान के साथ तन्मय रहने वाला ज्ञाता व्यक्ति कोई और है और बाह्यजगत् के साथ तथा तत्सम्बन्धी करने धरने रूप विकल्पों के साथ तन्मय रहने वाला कर्ता व्यक्ति कोई और हैं इसीलिये कहा है कि “जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं और जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं।"
इस प्रकार यहाँ इस प्रकरण में भली-भांति स्व-पर का सूक्ष्म विवेक जागृत कराया गया । यद्यपि विषय कुछ कठिन सा है, पर भाई ! इसके समझे बिना छटकारा नहीं है। आगे आने वाले सारे मार्ग का मल आधार यही विवेक-ज्ञान है। अन्तरंग जीवन की वास्तविकता इसके बिना होनी असम्भव है। अत: जिस किस प्रकार भी इसे तू अवश्य समझ और जीवन के २४ घण्टों की प्रवृत्तियों में इस सिद्धान्त को विचारणा का विषय बनाने का प्रयल कर । शान्ति-पथ का यह प्राण है । इसके बिना सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान निष्फल हैं।
४. षट्कारकी स्वतंत्रता–शान्ति-पथ की सिद्धि के अर्थ जीव अजीव तत्त्वों की बात चलती है। उनकी मिली-जुली अवस्था में विवेक उत्पन्न करने के लिये कुछ प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है । सत्-असत् विवेक तथा स्व-पर विवेक विषयक प्रश्नों का समाधान हो जाने के उपरान्त अब तीसरा प्रश्न आता है यह कि, अति महिमावन्त तथा स्वतन्त्र चेतनतत्त्व होते हुये भी मैं इस जड़ या अजीव तत्त्व के आधीन कैसे बन बैठा, जो हजार प्रयत्न करने पर भी इसके चंगुल से छुटकारा सम्भव नहीं हो पा रहा है । प्रश्न बड़े महत्त्व का है । इस पर विचार करते हैं । अभी-अभी तीन कोटि के पर-पदार्थ बताये गये हैं—एक तो भिन्न क्षेत्रावगाही धन, कुटुम्बादि, दूसरा एक क्षेत्रावगाही स्थूलशरीर और तीसरा मेरे साथ कुछ तन्मयसा दीखने वाला रागद्वेषात्मक सूक्ष्मशरीर । यह तीसरा शरीर ही मेरा वास्तविक बन्धन है, न है धन कुटुम्बादि और न है यह स्थूलशरीर । इससे मुक्त होने के लिये मुझे यह ज्ञान होना चाहये कि इसकी मेरे अन्दर उत्पत्ति किस प्रकार तथा किस कारणं से होती है । इसी का उत्तर आज चलेगा।
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