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________________ ९. विवेक ज्ञान ३. स्व-पर विवेक नहीं, इसी प्रकार स्वतन्त्र सत्ताधारी होने से जीव अजीव तत्त्व ही सत् हैं, यह बाह्याभ्यन्तर जगत् नहीं । जिस प्रकार लाल रंग चूने और हल्दी का संयोगी स्वाँग है अन्य कुछ नहीं, इसी प्रकार यह बाह्याभ्यन्तर जगत् भी जीव अजीव तत्त्वों का संयोगी स्वाँग है अन्य कुछ नहीं । ३. स्व-पर विवेक अब तक दो तत्त्व बताये गये, जीव और अजीव । इनमें से कौन स्वतत्त्व है और कौन परतत्त्व यह बात खोजनी है यह स्पष्ट है कि स्व का अर्थ "मैं" है, और "मैं" चेतन है, इसलिये स्वतत्त्व जीव ही हो सकता है, अजीव कदापि नहीं । अजीव तत्त्व दो कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-एक वह अजीव जो दूध-पानीवत् मेरे साथ इस प्रकार मिला पड़ा है कि उस मिश्रण में जीव कौन व अजीव कौन यह विवेक भी स्थूल दृष्टि से होना असम्भव है, और दूसरा अजीव वह है कि मुझसे तथा मेरे इस शरीर से पृथक् पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है । पहले के अन्तर्गत आते हैं बाहर तथा भीतर के मेरे अपने स्थूल व सूक्ष्म शरीर और दूसरे के अन्तर्गत आते हैं अन्य व्यक्तियों के शरीर तथा स्त्री, कुटुम्ब, धन, मकान आदि । अजीव होने के कारण ये सब परतत्त्व हैं । अब लीजिये जीव तत्त्व | जीव तत्त्व यद्यपि स्वपदार्थ कहा गया है, परन्तु सर्व ही ऐसा नहीं है । अत: जिस जीव- विशेष में चैतन्य के अतिरिक्त इस "मैं" पने का लक्षण विशेष तो स्वपदार्थ है, और केवल चैतन्य लक्षण वाले शेष सर्व जीव परपदार्थ हैं। इसमें तो किसी संशय को अवकाश नहीं, परन्तु इसका भी एक विशेष अंश ऐसा है जिसे यहाँ परपदार्थ रूप से दिखाना अभीष्ट है । साधारण दृष्टि से तो वह अंश स्वपदार्थ रूप ही दिखाई देता है क्योंकि वह स्वयं मेरी ही कोई अवस्था - विशेष है, जो भले ही उपरोक्त पर - पदार्थों का आश्रय लेकर उत्पन्न होता हो, पर है चैतन्यरूप, जड़रूप नहीं । मेरा संकेत अभ्यन्तर के उस चिदाभासी जगत् की ओर है जिसका कि संग्रह अजीव तत्त्व के अन्तर्गत किया गया है । ५० जीव स्वपदार्थ कहे जा सकें घटित होता हो वह एक जीव यहाँ इतना ही बताना इष्ट है कि स्थूलदृष्टि से दीखने वाले, भिन्न क्षेत्र में स्थित, जड़ पदार्थ अर्थात् धनादिक और चेतन पदार्थ पुत्र आदिक; कुछ सूक्ष्म दृष्टि से दीखने वाले एक क्षेत्र में स्थित जड़पदार्थ अर्थात् शरीर व कर्म आदिक और अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से दीखने वाले अत्यन्त निकट व तन्मयरूप से प्रकाशमान मन-बुद्धि आदिक; तथा उनमें नित्य-निरन्तर नृत्य करने वाले रागादिक, इन सबको पर पदार्थ रूप से ग्रहण करना चाहिये । तात्पर्य यह कि सकल बाह्याभ्यन्तर विस्तार परतत्त्व है। धन कुटुम्बादिक तथा शरीर इन पदार्थों को पर कहना तो बहुत स्थूल बात है क्योंकि बिना परिश्रम के ही समझ में आ जाती है। चेतन व इन द्रव्यों की जाति में ही भेद है। तीन काल में भी एक नहीं हो सकते । शरीरादि को जीव कहना स्पष्ट असत्यार्थ है । अध्यात्मवादी कभी भी यह कहना स्वीकार नहीं कर सकता । परन्तु हम तो तुम्हें इससे भी कहीं आगे ले जाना चाहते हैं, वहाँ जहाँ कि अध्यात्मका सूक्ष्म रहस्य छिपा है । त्रिकाली भिन्न सत्ताधारी द्रव्यों में पृथकता देखना स्थूल अध्यात्म है और एक ही पदार्थ के दो क्षणिक भावों में पृथकता देखना सूक्ष्म अध्यात्म है। पहले का विषय द्रव्य है और दूसरे का पर्याय अर्थात् द्रव्य की अवस्था । पहला द्रव्यार्थिक नयका विषय है और दूसरा पर्यायार्थिक नयका । यह दृष्टि पदार्थ के अपने अन्दर में पड़ी उस सूक्ष्म सन्धि को देखती है, जो लौकिक-स्थूल दृष्टि में आनी असम्भव है। प्रज्ञा छैनी के द्वारा ही उस सूक्ष्म सन्धि का साक्षात्कार किया जा सकता है। Jain Education International पदार्थ शुद्धस्वभाव अर्थात् पारिणामिक-भाव को लक्ष्य में लेकर पदार्थ का विचार करने पर ही यह रहस्य समझा जा सकता है, उसकी पर्यायों को लक्ष्य में लेकर नहीं । इन्द्रिय-अग्राह्य चेतन और इन्द्रिय-ग्राह्य जड़ दोनों ही द्रव्यों में दो प्रकार के क्षणिक भाव या अवस्था - विशेष देखने को मिलती हैं— स्वभाव- अवस्था तथा उसके विपरीत विभाव- अवस्था । जिसमें किसी का मेल या संयोग न पाया जाय वह स्वभाव-भाव है और जिसमें किसी प्रकार से भी अन्य का मेल या संयोग पाया जाय वह विभाव-भाव है। अकेला परमाणु जो इन्द्रिय के द्वारा दृष्ट नहीं हो सकता, उसके स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध आदि जड़ पदार्थ के स्वभाव-भाव हैं और जो ये सम्पूर्ण दृष्ट-स्थूलपदार्थ हैं, उनके स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध आदि उनके विभाव-भाव हैं, क्योंकि अनेक सूक्ष्म- परमाणुओं का संयोग हुये बिना उनका निर्माण होता नहीं । इसी प्रकार लोक-शिखर परम धाम में विराजमान नित्य निरंजन व शरीर रहित निराकार सिद्ध-भगवान या मुक्त-आत्मा तथा उसके सर्वज्ञत्व आदि गुण जीव के स्वभाव-भाव हैं और ये सब शरीरधारी संसारी जीव तथा उनके क्रोधादि गुण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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