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________________ ९. विवेक-ज्ञान १. विवेक, २. सदसद् विवेक, ३. स्व-पर विवेक, ४. षट्कारकी स्वतन्त्रता, ५. जन्म-मृत्यु रहस्य, ६. उत्पाद व्यय ध्रौव्य, ७. भेद-विज्ञान। १. विवेक-शान्ति-पथ के अन्तर्गत श्रद्धा के विषयभूत सात तत्त्वों में से जीव अजीव नाम वाले प्रथम दो प्रधान तत्त्वों की बात चलती है। दोनों तत्त्वों का रहस्यात्मक परिचय पा लेने के उपरान्त कुछ प्रश्न स्वत: समक्ष आकर खड़े हो जाते हैं। (i) पहला प्रश्न तो यह है कि इस बाह्याभ्यन्तर अनन्त विस्तार में मैं इन दोनों तत्त्वों के यथार्थ दर्शन कैसे करूँ। यह सब कुछ वैसा ही है जैसा कि दिखाई दे रहा है, या कुछ और है? अर्थात् क्या यह सत् है महातत्त्वों का कोई स्वांग जो कि उन दोनों ने परस्पर में मिलकर मझे ठगने के लिये धारण किया है? अर्थात सदसत विवेक । (ii) दूसरा प्रश्न यह है कि दूध पानी की भाँति एकमेक होकर धारण किये गये इन दोनों तत्त्वों के इस स्वांग में मैं तथा मेरा क्या व कितना अंश है और मुझसे भिन्न परका क्या व कितना अंश है ? अर्थात् स्व-पर विवेक । (iii) तीसरा प्रश्न यह है कि अतिमहिमावन्त तथा स्वतन्त्र चेतन तत्त्व होते हुये भी मै इस जड़ या अजीव तत्त्व के अधीन कैसे बन बैठा हूँ, हजार प्रयत्ल करने पर भी इसके चंगुल से छुटकारा सम्भव नहीं हो पा रहा है । (iv) चौथा प्रश्न यह है कि वह कौन सी विधि है जिससे कि इस जगत् में रहते हुये भी मैं प्रपंच का स्पर्श न करते हुये केवल इसका द्रष्टा बना रहूँ। (v) पांचवां प्रश्न यह है कि ये दोनों तत्त्व किस प्रकार परस्पर में मिलकर बाह्याभ्यन्तर प्रपञ्चरूप इस अखिल विश्व की तर्कातीत कार्य-व्यवस्थाका संचालन कर रहे हैं? अर्थात् कारण-कार्य-व्यवस्था । अब लीजिये क्रम से एक-एक प्रश्न पर विचार करते हैं। २. सदसद विवेक-पहला प्रश्न है सत-असत विवेक । यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जो कुछ भी बाहर में अथवा भीतर में दिखाई दे रहा है, वह सब असत् है, सत् नहीं । बड़ी विचित्र बात सुन रहे हैं । आँखों से प्रत्यक्ष दिख रहा है और असत् ? नित्य प्रयोग में ला रहा हूँ और असत् ? कोई स्वप्न थोड़े ही देख रहा हूँ कि असत् समझ लूँ इसे? केवल आपके कहने मात्र से कैसे असत् मान लूँ ? देखो आपके शरीर पर चुटकी भरता हूँ। कुछ पीड़ा होती है कि नहीं? फिर असत् कैसे समझ लूँ इसे? ठीक है भाई ! तेरी शंकायें बिल्कुल उचित हैं । व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर तो ऐसा ही है। परन्तु मैं जिस पारमार्थिक दृष्टि की बात कर रहा हूँ, जिस तात्त्विक दृष्टि की बात कर रहा हूँ, उससे देखने पर यह सर्वथा असत् ही है। देख, 'सत्' किसे कहते हैं? जिसकी अपनी कोई मौलिक या पारमार्थिक स्वतन्त्र सत्ता हो। हल्दी तथा चूने के संयोग से उत्पन्न होने वाले लाल रंग की क्या अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता है? हल्दी पीली और चूना सफेद । फिर यह लाल रंग कहाँ से आ टपका । सत् कहें इसे कि असत् ? बस यही है वह दृष्टि जिससे देखने पर, यह अखिल प्रपञ्च असत् होकर रह जाता है । हल्दी और चूने के संयोग से उत्पन्न लाल रंग की भाँति बाह्याभ्यन्तर यह सकल विस्तार भी वास्तव में मौलिक सत्ताभूत कुछ न होकर उनके संयोग से उत्पन्न होने वाली पर्यायें हैं, कुछ द्रव्य-पर्यायें और कुछ भाव-पर्यायें । बाह्य जगत् के मृत शरीर या जड़ द्रव्य हैं। केवल परमाणुओं के पिण्ड और जीवित-शरीर हैं जीवात्मा सहित परमाणुओं के पिण्ड । इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत् के बौद्धिक ज्ञान तथा मानसिक राग-द्वेष हैं ज्ञान के साथ ज्ञेय का संयोग हो जाने के कारण उत्पन्न होने वाले भावात्मक पिण्ड । पयायें होने के कारण सभी हैं उत्पन्न-ध्वंसी। भले, पर्यायार्थिक दृष्टि से देखने पर इनकी व्यावहारिक सत्तायें प्रतीत होती हों, परन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखने पर इनकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं। जो आज है और कल नहीं, उसका भरोसा ही क्या, और सत् कैसे कहा जा सकता है उसे, सत्ताभूत कैसे समझा जा सकता है उसे? जिस प्रकार सागर से भिन्न उसकी तरंग की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं इसी प्रकार जीव अजीव तत्त्व से भिन्न इस बाह्याभ्यन्तर जगत् की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। इसलिये जिस प्रकार स्वतन्त्र सत्ताधारी होने से सागर ही सत् है तरंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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