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९. विवेक-ज्ञान
५. जन्म-मृत्यु रहस्य
लिये किसी सहायक की प्रतीक्षा करनी पड़ती है क्या? कि अमुक सहायक आये तो मैं बदलें, नहीं तो बदलना चाहते हुये भी कैसे बदलूँ ? और जब तक योग्य सहायक न मिले तो बदले बिना ही पड़ा रहूँ? नहीं नहीं, ऐसा नहीं है और न सैद्धान्तिक रूप से आप ऐसा स्वीकार ही करते हैं । करें भी कैसे? सब घोटमटाला हो जाए, विश्व कूटस्थ हो जाए अर्थात् सत्ता का ही विनाश हो जाए, सब शून्य जो जाय।
और यदि सत्ता को उत्पाद-व्यय धौव्यरूप स्वीकार करते हो अर्थात् टिके रहते हुये भी स्वाभाविक रूप से स्वयं बदलती हुई स्वीकार करते हो तो, 'इसे मैने बदला' इस प्रकार के अहंकार को कहाँ अवकाश है? चलती गाड़ी के नीचे चलता कुत्ता भले यह विचारे कि गाड़ी को वह चला रहा है परन्तु उसके भ्रमात्मक विचार के कारण गाड़ी उसके आधीन नहीं हो जायेगी। इसी प्रकार तू भले यह कल्पना करे कि मैं इस विश्व का काम कर रहा हूँ, मेरे किये बिना बेचारा यह जड़ क्या करेगा, परन्तु तेरे भ्रमात्मक विकल्प के कारण विश्व तेरे आधीन नहीं हो जायेगा। सारा लोक भी यही भ्रम बनाये क्यों न बैठा रहे. पर विश्व अर्थात सर्व पदार्थ-समह तो स्वतन्त्र ही रहेगा. अपनी सर्व पलटने की क्रियाओं में । अपने स्वभाव के अतिरिक्त उसे अन्य किसी का आश्रय नहीं है।
उपरोक्त सर्व वक्तव्य पर से मेरा प्रयोजन केवल यह सिद्ध करना है कि किसी दृष्टि-विशेष से देखने पर प्रत्येक पदार्थ जड़ हो कि चेतन, अपना-अपना कार्य करने को पूर्ण स्वतन्त्र है। प्रत्येक पदार्थ बिना दूसरे की सहायता के परिवर्तन करने को स्वयं समर्थ है और कर रहा है । षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वयं बदलने की शक्ति रखता है । इसलिये वह स्वतन्त्र रूप से बदलता हुआ ही अपनी किसी विशेष अवस्था को स्वयं उत्पन्न करता है, स्वयं अपने द्वारा उत्पन्न करता है, स्वयं अपने लिये उत्पन्न करता है अर्थात् उस अवस्था को उत्पन्न करके स्वयं ही
साथ तन्मय हो जाता है, अपने में से ही निकालकर उत्पन्न करता है, अपने स्वभाव में रहते हुये ही उत्पन्न करता है और इसलिये यह अवस्था-विशेष उस ही की है, किसी अन्य की नहीं। इसी को षट्कारकी स्वतन्त्रता कहते हैं। अवस्था उत्पन्न करना ही पदार्थ का काम है। इसलिये कह सकते हैं कि उपरोक्त षट्कारकों रूप से प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपना कार्य करता है, किसी दूसरे की सहायता की उसे आवश्यकता नहीं। जैसा कि अगले अधिकार में बताया जाने वाला है, भले ही वस्तु की कार्य-व्यवस्था में निमित्तों आदि की सहायता का कोई स्थान हो परन्तु वस्तु-स्वभाव को देखने वाली इस तात्त्विक दृष्टि में उसका कोई स्थान नहीं है।
५. जन्म-मृत्यु रहस्य-लीजिये इसी तथ्य को दृष्टान्त देकर समझाता हूँ । दृष्टान्त भी तुम्हारा अपना। थोड़ी देर के लिये लौट आइये वहीं जहाँ कि अजीव तत्त्व का वर्णन करते हए इस चेतन की मुर्खता का दिग्दर्शन कराया जा रहा था, उस मूर्खता का जिसके कारण कि वह 'मैं' की खोज निज शान्ति स्वभाव में न करके करता है विविध शरीरों में, इनके नातेदारों में तथा इनके जन्म मरण में । फिर आप ही सोचिये कि कैसे सम्भव हो सकते हैं चेतन भगवान के दर्शन? जड़ शरीरों में जब वह है ही नहीं तो वहाँ वह मिलेगा कैसे?
युगों बीत गए, परन्तु आज तक न सम्भला। घर में पुत्र उत्पन्न हुआ, अहा हा ! कितनी अनोखी बात हुई, कितने हर्ष का स्थान हुआ, एक नवीन वस्तु जो बना डाली है मैंने मानो कि उसकी सत्ता ही बना डाली हो, इससे पहले वह लोक में ही न हो । एक महान् काम जो किया है मैंने, अपने ही जैसे एक नवीन व्यक्ति का सृजन करके, परन्तु अपनी ही भाँति मूर्ख । मूों की टोली में एक की वृद्धि जो कर दी है मैने । और यह क्या ? अरे काल ! हाय हाय ! नहीं तू तो चला जा यहाँ से । देख देख ! जरा दूर रह, यहाँ मत आ । यह तो मेरा पुत्र है, मेरी सृष्टि है, इस पर तो मेरा अधिकार है। तू कहाँ ले जाना चाहता है इसे, मेरे बिना पूछे ? व्यापार में कुछ लाभ हुआ। अहा हा ! कितना बड़ा काम किया है मैंने, कितना चतुर हूँ मैं जो इतना धन ले आया हूँ ? मानों कोई नई वस्तु ही, बनाकर लाया हूँ। इससे पहले यह इस जगत् में थी ही नहीं ! अरे रे ! यह क्या ? हानि? अरे रे । तुझे किसने बुलाया ? जा जा, जब बुलावें तब आना, बिना बुलाये आना सेवक की मूर्खता है। मानो मेरी ही तो आज्ञा चल रही है विश्व पर, मेरे ही आधीन रहना चाहिये सबको, मैं स्वामी जो हूँ सबका। मूों को सब ही मूर्ख न दिखाई दें तो क्या दिखाई दे ? और इसी प्रकार कभी हँसता और कभी रोता चला आ रहा हूँ न जाने कब से?
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