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________________ ९. विवेक ज्ञान ५४ ५. जन्म-मृत्यु रहस्य मेरे अन्दर आत्मा बोल रही है, मेरी मृत्यु एक दिन आ जायेगी, मुझे चिता पर रखकर फूँक दिया जायेगा और आत्मा उड़ जायेगी इसमें से, एक फूँक सी निकलकर । और इसके पश्चात् मैं ? मैं तो जला दिया गया न ? एक अन्धकारसा, जिसमें कुछ नहीं भासता कि मैं रहा या विनश गया। नहीं-नहीं, मैं तो विनश ही गया। मृत्यु जो आ गई । अब कहाँ दीखूँगा मैं ? किसे दीखूंगा मैं ? किसे पुकारेंगे लोग अमुक नाम लेकर ? जन्म से पहले कब था मैं ? किसे दीखता था मैं ? कौन पुकारता था मुझे अमुक नाम लेकर ? हाँ हाँ, ठीक है, जन्म से पहले मैं था ही नहीं और मृत्यु के पश्चात् मैं रहूँगा नहीं । जन्म से मृत्यु तक के लिये, बस इतना ही तो हूँ मैं, इतना ही तो है मेरा जीवन । जितनी मौज उड़ाई जाये उड़ाले, जितनी सम्पत्ति खाई जाये खाले, फिर कौन जानता है कि रहे या न रहे। सदा से जी-जीकर मरता आ रहा है आज तक इसी प्रकार । सदा से बराबर विनश रहा है तू, सदा से चिता में जलाया जा रहा है तू । पर मजे की बात यह कि 'मैं हूँ' यह कहने वाला आज भी तू अपने होने का पोषण कर रहा है। सदा से भोग रहा है तथा खा रहा है इस लोक की सम्पत्ति को, पर आज भी यह ज्यों की त्यों बनी हुई है, इस धरातल पर । अरे भाई ! यह विचारा है कभी कि यह जिसे तू फूँक सी उड़ जाने वाली आत्मा कह रहा है, जिसे तू अपने अन्दर बोलता हुआ देख रहा है, वही तो तू है, चेतन-ज्योति परमतत्त्व, अबाध्य व अकाट्य । जिसे तू जलता हुआ देख रहा है, वही तो है 'अजीव तत्त्व' चेतन-शून्य जड़ । यदि विश्वास नहीं आता तो अपने को, उस फूँकसी को निकालकर देखले इस ढोल की पोल । कहाँ चली जाती है इसकी ज्योति व तेज ? आँख होते हुए भी क्यों नहीं देख सकता है यह ? मुँह होते हुए भी क्यों नहीं बोल सकता है यह ? कान होते हुए भी क्यों नहीं सुन सकता है यह ? नाक होते हुए भी क्यों नहीं सू सकता है यह ? अग्नि पर रख देने पर भी क्यों पीड़ा नहीं होती है इसे अब ? क्यों चीख-पुकार नहीं करता है आज यह ? यह तू ही था कि जिसके कारण इसमें ज्योति थी, तेज था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह देखता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह बोलता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह सुनता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह सूंघता था, और यह तू ही तो था जिसके कारण अग्नि लगने से यह चीखता था । परन्तु विचार तो कर अपनी बुद्धि के फेर पर। अपने को फूंकवत् फोकट की वस्तु मान बैठा और इसे 'मैं' मान बैठा है। अपनी महत्ता भूलकर इसकी महत्ता गिनता है । अपने को जड़ व इसे चेतन मानता है । भाई ! तू आज तक कभी मरा नहीं । मरता तो आज बैठा 'मैं' कहने वाला तू कहाँ से आता ? यदि विश्वास नहीं आता तो पुनर्जन्म के उन प्रत्यक्ष दृष्टान्तों को देख जो आज के समाचार पत्रों के युग में प्रत्यक्ष पढ़ने, सुनने, देखने व अनुभव करने में आ रहे हैं। अपने को मैं कहने वाला कोई भी व्यक्ति-विशेष, पुनर्जन्मपर विश्वास न करने वाले वातावरण में उत्पन्न होकर भी, अर्थात् मुसलमानों व ईसाईयों में जन्म धारण करके भी क्या आज यह कहता सुना नहीं जाता कि मैं इससे पहले अमुक देश में, अमुक ग्राम में, अमुक माता-पिता का पुत्र या पुत्री, अमुक का पिता या माता, अमुक का पति या स्त्री था । अमुक व्यापार करता था, अमुक मकान मेरा ही था। यह मेरी ही दुकान थी, अमुक व्यक्ति को इतना पैसा देना था मुझे अमुक स्थान पर अमुक वस्तु रखी हुई थी मैंने तथा अन्य भी अनेकों ऐसी बातें जिनकी खोजबीन व परीक्षा कर लेने के पश्चात्, उन सर्व बातों की सत्यता प्रकाशित हो जाने के पश्चात्, यह कहे बिना न बनेगा कि निःसन्देह अपने को आ 'मैं' कहने वाला यह व्यक्ति वही है जो इस बार जन्म लेने से पहले इससे पूर्वकी अवस्था में भी अपने को 'मैं' ही कहता विद्यमान था। भले ही पहले अन्धविश्वास पर आधारित रहा हो यह तथ्य, पर आज के युग में तो सौभाग्यवश अन्धविश्वास का विषय नहीं रह गया है यह । हस्तामलकवत् आज प्रत्यक्ष हो रहा है, इस परम सत्य का । ६. उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य—- इसप्रकार देखने पर आज जो जन्मा है वह वही है जो पहले कहीं से मरा है कोई नया नहीं । और यदि ऐसा ही है तो जन्म लेते समय कौन नई वस्तु जन्मी और मरण पाते समय कौन पहली वस्तु विनशी ? बिल्कुल इसी प्रकार जिस प्रकार कि विचार करने पर यह बात ध्यान में आ जाती है कि धन-लाभ होते कौन नई वस्तु आ गई और धन-हानि होते कौन वस्तु विनश गई ? यहाँ ही थी यहाँ ही रही, न कुछ आई न कुछ गई। इसी प्रकार तू भी यहीं था यही रहा, न कुछ जन्मा न कुछ मरा । तेरे इस जन्म से या धन-लाभ से लोक में न कुछ लाभ हुआ न वृद्धि हुई और तेरी इस मृत्यु से या धन-हानि से लोक में न कुछ घटोतरी आई न कुछ हानि हुई । 'मैं' कहने वाले जितने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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