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९. विवेक - ज्ञान
६. उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य व्यक्ति थे अब भी उतने ही रहे। जितनी सम्पत्ति थी अब भी उतनी ही रही। केवल 'मैं' के शरीरों की कुछ आकृतियें या स्थान मात्र बदल गये और इसीप्रकार सम्पत्ति के भी रूप व स्थान मात्र बदले ।
पहले कलकत्ते के एक ब्राह्मण कुल में था और आज इस मुजफ्फरनगर के एक वैश्य कुल में। पहले कभी पशु के शरीर में था अब मनुष्य के शरीर में, पहले कभी चींटी के रूप में था अब मनुष्य के रूप में और इसी प्रकार सर्व रूपों में, सर्व शरीरों में, बराबर क्रम से परिवर्तन करता, एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता रहता, आज भी अपने अस्तित्व को तेरा यह 'मैं' प्रत्यक्ष प्रकाशित कर रहा है। और इसी प्रकार यह सम्पत्ति भी, पहले विष्टारूप थी और आज अन्नरूप, पहले पृथ्वी रूप थी और आज स्वर्णरूप, पहले पत्थर रूप थी और आज आपकी सुन्दर अंगूठी रूप, पहले किसी के पास थी और अब आपके पास, पहले पशुओं की भोज्य थी और आज आपकी। इसी प्रकार अनेकों रूपों में परिवर्तन करती, एक स्थान से अन्य स्थान पर जा-जाकर भ्रमण करती, आज भी यह किसी न किसी रूप में अपने अस्तित्व को सिद्ध कर रही है ।
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इसी प्रकार यह शरीर भी तो पहले विष्टारूप था, फिर मिट्टी हो गया, अन्न बन बैठा, किसी के द्वारा भक्षण किये जाने पर उस ही शरीर के अंगोपांग रूप से परिवर्तित हो चमड़ा हड्डी बन गया, जलकर राख हो गया, और राख फिर पृथ्वी बन गई। या उस भोज्य का ही कुछ भाग विष्टा बनकर फिर पीछे मिट्टी बन गया अथवा माता-पिता के द्वारा ग्रहण किया गया वह भोजन किसी अन्य बालक के शरीर रूप बन गया और एक दिन अकस्मात् प्रकट होकर आश्चर्य में डाल दिया उसने सबको । बताइये तो क्या जन्मा क्या मरा? शरीर का पदार्थ भी तो कोई नया उत्पन्न हुआ नहीं और न ही विनशा, रूप से रूपान्तर होता तथा स्थान से स्थानान्तर होता यह वही तो है जो पहले था। न कुछ विनशा न कुछ उपजा ।
यदि कहीं इतनी योग्यता हुई होती कि इस चेतन के तथा इस शरीर के अंगस्वरूप इन पृथ्वी-जल आदि तत्त्वों के, प्रत्येक क्षण में होने वाले परिवर्तन का बराबर निरीक्षण कर सकता तो यह स्पष्ट प्रतिभास हो जाता कि इस पृथ्वी का एक कण कोंपल में आ गया, और देखो वही अब अन्न में बैठा हुआ है, और देखो अब इस शरीर में बैठा हुआ अपने अस्तित्व
बराबर दर्शा रहा है । अथवा यह 'मैं' कहने वाला व्यक्ति जो आज कुत्ते के शरीर में बोलता दीख रहा है, देखो वह उड़ा रहा है आकाश में पूर्व की दिशा को, यह देखो इस फूल में आ बैठा और ओह ! कितना बड़ा रूप धारण कर, ये देखो वही इस वृक्ष में बैठा है अथवा इस माता के गर्भ में प्रवेश पा गया और देखो आज यह तेरे शरीर में बैठा अपने को उसी 'मैं' शब्द के द्वारा पुकारता हुआ अपने लम्बे अस्तित्व का परिचय दे रहा है । तब यह भ्रम न रह पाता मुझे, जो आज है ।
भले प्रत्यक्ष रूप न सही पर सौभाग्यवश आज भी परोक्षरूप से, तर्क व अनुमान के आधार पर ये सब उपरोक्त बातें प्रत्यक्षवत् हो रही हैं और अपनी सत्यता को सिद्ध कर रही हैं । प्रभो ! तुझे बुद्धि मिली है। विचार व अनुभव के आधार पर किसी छिपे हुए रहस्य का पता लगाने का प्रयत्न कर। यह सर्व तथ्य परोक्ष हों, ऐसा भी नहीं, है। मेरे गुरुवर तथा योगीजनों को इसका प्रत्यक्ष भी हुआ है, जिसके आधार पर कि मुझे सम्बोधन के लिए तथा मेरी भूल दूर हो जाय इस अभिप्राय से परम करुणापूर्वक लिख गये हैं वे, इन शास्त्रों में। और इसीलिये मेरे अनुमान व तर्क की साक्षी देने वाला यह आगम भी उस तथ्य की सत्यता को सिद्ध कर रहा है।
उपरोक्त सर्व कथन पर से सिद्धान्त निकला यह कि :
१. लोक में दो जाति के पदार्थ हैं। एक चेतन तथा दूसरा अचेतन (जड़) । एक विचारने व सुख-दुःख का वेदन करने की शक्ति रखने वाला और दूसरा इन शक्तियों से रहित । एक अमूर्तिक तथा दूसरा मूर्तीक। एक इन्द्रियों से देखा जाने तथा जाना जाने योग्य और दूसरा इन्द्रियों से अगोचर । चेतन व अमूर्तिक तत्त्व का नाम जीव या (सोल) और दूसरे जड़ व मूर्तीक तत्त्व का नाम पुद्गल यां (मैटर) है ।
२. दोनों ही सदा से हैं और सदा रहेंगे, न नये पैदा होते हैं और न कभी विनशते या अपनी सत्ता खोते हैं। दोनों ही अपनी-अपनी अवस्थायें अपने-अपने में बराबर बदल रहे हैं अर्थात् उनमें सदा नई अवस्थायें उत्पन्न होती रहती हैं। तथा पुरानी अवस्थायें विनशती रहती हैं। अर्थात् वस्तु उत्पाद-व्यय-धौव्य इन तीनों अंशों का अखण्ड पिण्ड है । वे दोनों ही एक स्थान से अन्य स्थान को प्राप्त होते रहते हैं । अवस्था बदलते रहते भी जीव सदा जीव ही बना रहता और पुद्गल सदा पुद्गल ।
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