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९. विवेक-ज्ञान
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७. भेद विज्ञान
३. जीव-तत्त्व रूप 'अहं प्रत्यय' के द्वारा सदा सुख-दुःख का वेदन होता रहता है और पुद्गल के द्वारा शरीर का निर्माण । शरीर और शरीरधारी के सम्बन्ध में जकड़े हुए ये दोनों दूध और पानीवत् एकमेक होकर रहते हैं । एकमेक होकर रहते हुए भी जीव कभी पुद्गल और पुद्गल कभी जीव बन नहीं सकता।
यह सिद्धांत शान्ति-पथ का प्राण है। बिना इसे जाने शान्ति पा लेना असम्भव है । अत: भो चेतन ! अपनी भूल सुधारने के लिये इस रहस्य को सुन । तर्क, अनुमान, अनुभव व आगम के आधार पर उसका निर्णय कर और अपने क्षण-क्षण की विचारणाओं में उसे अवकाश दे । ऐसा करने से तुझे अपने जीवन के सकल व्यवहार में सर्वत्र एक मात्र वस्तु-स्वभाव देखने का अभ्यास हो जायेगा, जिसके कारण तू अपने या किसी अन्य के कार्यों में एक दूसरे की सहायता न देखकर उन्हें स्वतन्त्र रीति से होता हुआ ही देखेगा, किया जाता हुआ नहीं।
७. भेद विज्ञान-इसी का नाम है स्वपर-पदार्थों की पृथकता, ज्ञान का अचिन्त्य महात्म्य । मिले जुले रहते हुए भी, मिश्रित पदार्थों में ज्ञान से भेद देखा जा सकता है, पृथकता देखी जा सकती है । निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पड़े रहते हुए भी षट्कारकी स्वतन्त्रता देखी जा सकती है। यदि मिले-जुले में भेद न देखे तो ज्ञानी काहे का? पृथक् पदार्थों को पृथक् तो अन्धा भी कह देगा । उसमें कौन चतुराई है ? जौहरी तो तभी कहला सकता है कि जब खोटे जेवर में स्वर्ण व खोट का सही-सही अनुमान करके, उसी अवस्था में उन दोनों को पृथक् पृथक् देखे और खोट को जानते हुए भी केवल स्वर्ण का मूल्य आँके, खोट का नहीं, यद्यपि उसे पता है कि कुछ न कुछ मूल्य तो खोटका भी है ही। इसी प्रकार निमित्त-नैमित्तिक-रूप से षट्कारको सम्बन्ध रहते हुए भी षटकारकी भेद देखना ही ज्ञान का माहात्म्य है। इन दोनों का प्रत्यक्ष भेद हो जाने पर तो अन्धा भी इनमें कर्ता-कर्म आदि भाव न घटायेगा। उस समय उनमें स्वतन्त्रता देखना कहाँ की चतुराई है ? ज्ञानी तो तभी कहला सकता है कि जब बद्ध-अवस्था में दोनों के कार्य की सीमाओं का पृथक्-पृथक् निर्णय करने, केवल उपादान् अर्थात् स्वपदार्थ का ही मूल्य आँके, निमित्त या पर-पदार्थ का नहीं, यद्यपि उसे पता है कि कुछ न कुछ काम तो निमितत का भी है ही। - तू ज्ञानियों की सन्तान है, अन्धों की नहीं। अत: यही योग्य है कि परतंत्र दृष्टि को छोड़कर स्वतन्त्र दृष्टि को अपना । निमित्त को जानते हुए भी उसका मूल्य न गिन । स्व व पर दोनों को पूर्ण स्वतन्त्र देख, षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र अर्थात् स्वयं अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में ही अपना काम करते हुए देख । 'सुनार ने जेवर बनाया' ऐसा न विचारकर, 'स्वर्ण से जेवर बना' ऐसा विचार । 'मैंने कुटुम्ब पाला या शरीर के अर्थ धन कमाया' ऐसा न विचारकर, 'मैंने केवल विकल्प उत्पन्न करके अपना अहित किया' ऐसा विचार । इसका नाम है दो द्रव्यों की पृथकता, शरीर आदि का मुझसे जुदापना, या स्वपर-भेद विज्ञान । केवल 'शरीर जुदा और मैं जुदा' या 'शरीर मेरा नहीं, कुटुम्बसे मेरा कोई नाता नहीं' इतना कहने से काम न चलेगा। 'मेरा नहीं' का अर्थ, 'षट्कारकी रूप से मेरा नहीं' ऐसा है । अर्थात् न मैं इसका कोई काम कर सकता हूँ और न यह मेरा । न मैं इसके द्वारा कोई काम करा सकता हूँ, न यह मेरे द्वारा । न मैं इसके लिये कोई काम करता हूँ, न यह मेरे लिये । न मैं इसके स्वभाव में जाकर कोई काम करता हूँ न यह मेरे स्वभाव में आकर। अपने-अपने स्वभाव तथा अपनी-अपनी सत्ता से दोनों पृथक् हैं। अपने-अपने प्रदेशों से भी दोनों पृथक् हैं। अपने-अपने काल या अवस्थाओं से भी दोनों पृथक् हैं । अर्थात् पृथक्-पृथक् रह कर अपनी-अपनी अवस्थायें स्वतन्त्र रूप से उत्पन्न कर रहे हैं। अपने भावों के भी स्वयं स्वामी हैं । इस प्रकार है स्वपर-पदार्थों की पृथकता।
अजायबघर की वस्तुओं में आपको यह विश्वास है कि ये मेरे द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकतीं, इनको प्राप्त करने का मुझको अधिकार नहीं है। और इसी कारण उनको प्राप्त करने का विकल्प आपको नहीं आता, भले ध्यान से उनको देखा करो। परन्तु बाजार की वस्तुओं के प्रति आपको विश्वास है कि उनको ग्रहण करने या बनाने बिगाड़ने का आपको अधिकार है । इसलिये विकल्प उठ जाते हैं, उनको ग्रहण करने के या बनाने बिगाड़ने के।
उपर्युक्त स्वतन्त्र दृष्टि में इस बनाने बिगाड़ने सम्बन्धी कर्तापने के विश्वास को ही तुड़ाने का प्रयत्न किया गया है। इसके दूर हो जाने पर अजायबघर की वस्तुओं की भाँति, आप इस विश्व के समस्त पदार्थों को देखोगे ही, बनाने बिगाड़ने आदि के भाव नहीं करोगे । बस यही प्रयोजन है स्व-पर भेद विज्ञान का, या षट्कारकी भेद का । क्योंकि ज्ञाता दृष्टा ही वह साम्यता या शान्ति है जिसकी खोज में कि मैं निकला हूँ।
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