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१०. ज्ञानधारा कर्मधारा
१.स्व भज पर तज, २. ज्ञान-कर्म विवेक, ३. सत्य पुरुषार्थ ।
१. स्व भज पर तज–जीव अजीव तत्त्व-विषयक विवेक-ज्ञान जागृत करने के लिये अनेकों प्रश्न उत्पन्न हुए थे। उनमें से तीन प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देकर वस्तु-स्वातन्त्र्य का दिग्दर्शन करा दिया गया। अब चतुर्थ प्रश्न है यह कि किस विधि से इस जगत में विचरण करूँ जिससे कि यह प्रपञ्च मुझे स्पर्श न कर सके, और मैं केवल दृष्टा बना इसका तमाशा देखता रहूँ, मेरी शान्ति अक्षुण्ण बनी रहे, विविध विकल्पों के नीचे दबकर अचेत न हो जाय । उत्तर तो सरल है पर किया जाना कठिन । उत्तर में तो इतना मात्र कह देना पर्याप्त है कि “स्व को भज और पर को तज।” परन्तु इसका तात्पर्य क्या? मैं तो स्वयं 'मैं' हूँ ही, इसका भजना क्या? और पर पदार्थ मुझमें हैं ही नहीं, उनका तजना क्या? घर-बार धन-कुटुम्ब हैं, लो इन्हें छोड़कर वन में चला जाता हूँ। “भैया ! इतना मात्र ही नहीं है, तेरा भण्डार अनन्त है, उस सबको छोड़ने की बात है।" अच्छा लो यह वस्त्र भी उतार देता हूँ। “भैया ! इससे क्या होगा? केवल बाहर का गिलाफ उतरेगा। तेरा भण्डार भरा का भरा ही रह जायेगा।" तब कैसे करूँ ? और कुछ तो यहाँ दीखता नहीं, यह शरीर अवश्य है। लो इसे भी गड़ा माँ के चरणों में समर्पित कर देता हूँ। “परन्तु ऐसा करने से भी क्या होगा? तुरन्त दूसरा
मिल जायेगा।" तब क्या करूँ? बडी विचित्र समस्या है। इनके अतिरिक्त और है ही क्या, जिनका कि मैं त्याग करूँ।
__ भैया ! तेरी दृष्टि बाह्य जगत में ही घूम रही है इसीलिये तुझे अपना अक्षय भण्डार दिखाई नहीं देता है । देख अपने भीतर उस अभ्यन्तर-जगत की ओर जिसका विवेचन अजीव-तत्त्व के अन्तर्गत किया गया है, और जिसे विवेक-ज्ञान ने पर पदार्थ स्वीकार कर लिया है। यही है तेरा वह अक्षय कोष जिसका त्याग करना है । धन, कुटुम्ब, वस्त्र तथा देह के त्याग की बात नहीं है-मन, बुद्धि, अहंकार आदि के त्याग की बात है। “परन्तु इनका त्याग कैसे करूँ ? क्या शरीर को काटकर इसमें से मन-बुद्धि आदि को निकालकर बाहर फेंक दूं ? परन्तु इससे क्या होगा? तुरन्त दूसरे मिल जायेंगे । इसलिये माँस-पिण्डरूप द्रव्य-मन आदि के त्याग की बात नहीं है, भाव-मन आदि के त्याग की बात है, संकल्प-विकल्पों के तथा उनमें नित्य उदित हो-होकर लीन होने वाले इष्टानिष्टादि विविध द्वन्द्वों के त्याग की बात है, तक-वितकों के त्याग की बात है, इच्छाओं कामनाओं तथा वासनाओं के त्याग की बात है।"
। परन्तु इनका त्याग कैसे करूँ? ये तो ज्ञान के साथ एकमेक हुए पड़े हैं। क्या ज्ञान का त्याग कर दूं? ज्ञान का त्याग कर दिया तो फिर रह ही क्या गया? ज्ञान ही तो मेरा स्वरूप है । उसके त्याग का अर्थ है अपना त्याग, अपना नाश। और फिर ऐसा करना सम्भव भी तो नहीं है। क्या अग्नि कभी उष्णता का त्याग कर सकती है? "बात ठीक है भैया ! सक्षम होने के कारण कछ अटपटी सी अवश्य लगती है परन्त वास्तव में ऐसा नहीं है। ले समझाता हूँ। तनिक सूक्ष्म-दृष्टि से समझने का प्रयल कीजियो।”
__ जीव-पदार्थ में ज्ञान गुण ही प्रमुख है, अन्य सब उसका विस्तार है। चेतन के सब गुण ही चेतन हैं अर्थात् ज्ञानात्मक व अनुभवात्मक हैं । ज्ञान तो ज्ञान है ही, श्रद्धा भी ज्ञानात्मक है और चारित्र या प्रवृत्ति भी, क्योंकि ज्ञान के संशय-रहित रूप को श्रद्धा कहते हैं और उसी के समताभावी रूप को चारित्र कहते हैं । शान्ति भी ज्ञानात्मक है क्योंकि अनुभव करना ज्ञान का ही नाम है। इसी कारण आत्मा चित्पिड कहा जाता है । या यों कहिये कि ज्ञानमात्र ही 'जीव' है । अत: ज्ञान के कार्यों को ही ज्ञान का विषय बनाना इष्ट है । यह बात न भूलना कि यह सूक्ष्म-दृष्टि पर्याय की क्षणिक सत्ता को लक्ष्य में लेकर चली है, द्रव्य की ध्रव सत्ता को नहीं।
यद्यपि ज्ञान का कार्य जानना है, पर उसके साथ कुछ और भाव भी संलग्न हैं। जानना दो प्रकार का होता है—एक केवल जानना और दूसरा कल्पना विशेष के साथ जानना । अजायबघर में रखी वस्तुओं को जानना केवल
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