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________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा २. ज्ञान कर्म विवेक जानने का उदाहरण है । अथवा राह चलते किसी भी साधारण व्यक्ति को जानना केवल जानने का उदाहरण है और घर में पड़ी वस्तुओं को अथवा अपने पुत्र को जानना कल्पना-सहित जानने का उदाहरण है। अजायबाघर में कोई वस्तु इष्ट-अनिष्ट या तेरी-मेरी नहीं; पर घर की वस्तुओं में कोई इष्ट है कोई अनिष्ट, कोई मेरी है और कोई तेरी । इसी प्रकार में चलता साधारण व्यक्ति मेरे लिये अच्छा है न बरा. शत्र है न मित्र: परन्त अपना पत्र मेरे लिये अच्छा है. मेरा अपना है, मेरी सेवा करने वाला है। अजायबघर की वस्तये न ग्राह्य हैं न त्याज्य, न बनाने योग्य हैं और न बिगाड़ने योग्य; परन्तु घर की वस्तुओं में कोई ग्राह्य है और कोई त्याज्य, कोई बनाने योग्य है और कोई बिगाड़ने योग्य । इसी प्रकार राह चलता व्यक्ति न प्रेम किया जाने योग्य है और न द्वेष किया जाने योग्य, न बाधा पहुँचाया जाने योग्य है और न सहायता किया जाने योग्य; परन्तु अपना पुत्र प्रेम किया जाने योग्य है द्वेष किया जाने योग्य नहीं, सहायता किया जाने योग्य है बाधा पहुँचाये जाने योग्य नहीं । इसी प्रकार अन्यत्र भी जान लेना। यहाँ अजायबघर की वस्तुओं को जानना अथवा राह चलते व्यक्ति को जानना तो कर्तापने या भोक्तापने की कल्पनाओं से अतीत केवल जानना है, और घर की वस्तुओं को जानना अथवा अपने पुत्र को जानना कर्ता-भोक्ता की कल्पनाओं सहित होने के कारण जानने के साथ कछ और भी है। ज्ञान की पहली जाति के कार्य को 'ज्ञानधारा' कहते हैं और दूसरी जाति के कार्य को 'कर्मधारा' कहा गया है। इन पारिभाषिक शब्दों को याद रखना, क्योंकि अगले प्रकरणों में इनका अधिक विस्तार आने वाला है। ज्ञानधारा ज्ञातादृष्ट्रा-भावरूप है और कर्मधारा क्रोधादि विकारों रूप। ज्ञानधारा ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव के साथ तन्मय है अर्थात् उसके बिल्कुल अनुरुप है, इसलिए यह चेतनभाव है । और कर्मधारा पर-पदार्थों के करने धरने के विकल्पों-सहित होने के कारण ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव के साथ तन्मय नहीं है अर्थात् उसके बिल्कुल अनुरूप नहीं है, अत: परभाव है, चेतन-भाव से अन्य है और इसीलिए वह अचेतन या जड़ भाव है। . इन दोनों जाति की क्रियाओं में ज्ञान एक समय एक ही कार्य कर सकता है, क्योंकि उपयोग-विशेष अर्थात् जानना-विशेष ज्ञान की एक क्षणिक अवस्था है। पहले कुछ और जानता है पीछे कुछ और, पहले कुछ और तरह से जानता है पीछे कुछ और तरह से। एक ही क्षण एक ही ज्ञान की दोनों अवस्थायें नहीं हो सकतीं। इसलिये 'ज्ञानधारा' के सद्भाव में 'कर्मधारा' और 'कर्मधारा' के सद्भाव में 'ज्ञानधारा' होनी असम्भव है। अर्थात् क्रोध व रागादि विभाव-भावों के समय ज्ञाता-दृष्टापने की साम्यता और साम्यता के समय क्रोध व रागादि विभाव-भाव होने असम्भव हैं। ___ज्ञानधारा से तन्मय चेतन 'ज्ञाता' कहलाता है और कर्मधारा से तन्मय चेतन 'कर्ता' । इसका कारण भी यही है कि ज्ञान का अपने जानना-स्वभाव के अनुरूप कार्य अथवा पर्याय ही ज्ञान की जाति का कार्य या पर्याय कहा जा सकता है। कर्ता-भोक्तापने की कल्पनायें ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव की जाति की नहीं होने के कारण, उन्हें ज्ञान की जाति का कार्य या पर्याय नहीं कहा जा सकता । ज्ञानभाव से तन्मय ज्ञान का कार्य 'ज्ञान' कहलाता है और कल्पनाओं या विकल्पों में तन्मय ज्ञान का कार्य विकल्प या 'राग' कहलाता है। २. ज्ञान कर्म विवेक-इस प्रकार ज्ञान के रूपों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि वह दो जाति का है—एक तो केवल वस्तु के वर्तमान स्वरूप को अथवा उसके भूतभावी स्वरूप को या त्रिकाली स्वरूप को जानने मात्र रूप और दूसरा उस वस्तु के साथ अपना षट्कारकी नाता उत्पन्न करके उसमें अच्छे बुरे की कल्पना करने रूप । ज्ञान के पहले रूप का नाम ज्ञानधारा है और दूसरे का कर्मधारा । ज्ञानधारा व ज्ञाता-द्रष्टापना एकार्थवाची हैं, और कर्मधारा व कर्ताबुद्धि एकार्थवाची हैं। यह ज्ञान किसी भी पदार्थ के सम्बन्ध में क्यों न हो, दोनों जाति का हो सकता है। ऐसा नहीं है कि निज-आत्मा या भगवान सम्बन्धी ज्ञान ता ज्ञानाधारारूप हो और अन्य पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारा रूप हो । निजस्वरूप व भगवान सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारारूप होना सम्भव है और लौकिक पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान ज्ञानधारारूप होना सम्भव है । सो कैसे वही दर्शाता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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