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१०. ज्ञानधारा कर्मधारा
३. सत्य पुरुषार्थ ___ “मै हूँ, ज्ञान-स्वभावी हूँ, शान्ति मेरा स्वभाव है, पहले भव में मैं कुत्ते के रूप में था, अगले भव में मैं देव के रूप में हो जाने वाला हूँ", आत्मा सम्बन्धी यह सब विचारणायें ज्ञानधारारूप हैं । अर्थात् जहाँ भूत, वर्तमान व भविष्यत् काल सम्बन्धी अनेकों अवस्थाओं में गुंथे हुए मेरे एक अखण्ड रूप की सत्ता मात्र दिखाई देती है, वहाँ ज्ञानधारा है। क्योंकि यहाँ पर 'था, हूँ और हूँगा' के अतिरिक्त किसी भी अन्य पदार्थ के साथ या अपनी ही किसी अवस्था विशेष के साथ षट्कारकी सम्बन्ध जोड़कर उनमें इष्टता-अनिष्टता उत्पन्न नहीं की गई, केवल होने मात्र की स्वीकारता है । परन्तु "मैं पहले भव में बहुत निकृष्ट दशा में पड़ा था, बहुत दुखी था, अब मैं कुछ धर्म करूँगा या भोग भोगूंगा। देव बन जाऊँ तो बहुत अच्छा लगेगा", इस प्रकार का सर्व-ज्ञान कर्मधारारूप है, क्योंकि यहाँ अन्य पदार्थों तथा अपनी ही किन्हीं विशेष अवस्थाओं के साथ षट्कारकी सम्बन्ध जोड़कर उनमें इष्टता-अनिष्टता की कल्पना की जा रही है । इसी प्रकार “भगवान पूर्ण शान्ति में स्थित हैं, वे तीन लोक को देख रहे हैं, पहले निगोद में रहते थे, आगे सदा आनन्द में मग्न रहेंगे”, भगवान सम्बन्धी ये सब विचारणायें ज्ञानधारारूप हैं। और “भगवान अधमोद्धारक हैं, उनकी पूजा व भक्ति मेरे लिये बड़ी हितकारी है । वे अपने आश्रितों को अपने समान कर लेते हैं", इत्यादि प्रकार का ज्ञान कर्मधारा-रूप है।
इसी प्रकार “यह विष्टा नाम का एक पदार्थ है, इसका रंग पीला है, इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध है, उसकी उत्पत्ति इस प्रकार होती है, यह पहले अनरूप थी, अब खेतों में खाद के रूप में डाली जाती है," इत्यादि विष्टा-सम्बन्धी सर्व ज्ञान ज्ञानधारारूप है। परन्तु “यह बहुत घिनावनी है, दुर्गन्धित है, इसे मेरे पास से हटाओ" इत्यादि प्रकार का उसी विष्टा सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारारूप है । “यह युद्धस्थल है। यहाँ अनेकों योद्धा परस्पर में लड़कर मृत्यु की गोद में सो जाया करते हैं। यह युद्ध सिकन्दर व पोरस के मध्य हुआ था,” इत्यादि प्रकार सर्व-ज्ञान ज्ञानधारारूप है । परन्तु यह "युद्ध मेरे देश के लिये बड़ा हानिकारक सिद्ध हुआ भविष्य में हमें ऐसे युद्धों के प्रति रोक-थाम करनी चाहिये” इस प्रकार का सर्व ज्ञान कर्मधारारूप है । “आज का दिन बहुत गरम रहा है" यह ज्ञानधारा है और “इससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई है, गर्मी कुछ कम हो जाती तो अच्छा होता" यह कर्मधारा है । इसी प्रकार अन्य भी।
वास्तव में देखा जाय तो ज्ञानधारा बुद्धि के प्रयास द्वारा विचारणायें उत्पन्न करने रूपं नहीं होती, क्योंकि ऐसा करने से तो वह सब ज्ञान कर्मधारा रूप बन जायेगा। वह केवल सहज प्रतिभास रूप होती है। जैसा-कैसा भी, जिस-किस भी वस्त का प्रतिभास हो जाने पर मन की सर्व विचारणायें शान्त हो जाती हैं तथा वह व्यक्ति कछ उस प्रतिभास के साथ तन्मय सा होकर खोया-खोया सा महसूस करने लगता है । वह दशा कुछ अद्वैत-सी होती है और इसलिये शान्ति रूप है । जितनी देर भी ऐसी स्थिति रहती है मन को थकान नहीं होती बल्कि आनन्द में कुछ झूमता-सा रहता है परन्तु वहाँ से हटकर यदि कर्मधारा में आ जाता है तो बुद्धिपूर्वक का प्रयास प्रारम्भ होने के कारण, तब उसे उन्हीं विचारणाओं में कुछ थकान महसूस होने लगती है।
३. सत्य पुरुषार्थ-इस कथन पर से मानवीय पुरुषार्थ के ही दो रूप दर्शा दिये गये। उनमें से कर्मधारारूप पुरुषार्थ तो सर्व-लोक सदा से करता आ रहा है । शान्ति का उपासक इसे छोड़कर ज्ञानधारा रूप पुरुषार्थ का आश्रय लेता है और जीवन को तदनुरूप ढालने का धीरे-धीरे अभ्यास करता है । लौकिक और अलौकिक पुरुषार्थमें यही अन्तर है। यद्यपि उसका बाह्य जीवन तो एकदम वैसा होने नहीं पाता, परन्तु उसका दार्शनिक जीवन, जिसका आधार कि केवल श्रद्धा है, अवश्य पलटा खाता है, और करने-धरने की या कारण-कार्य-भाव खोजने की टेव विराम पाती है। इस अभ्यास या प्रयत्न का नाम ही मोक्ष मार्ग या शान्तिपथ है । यद्यपि व्यवहारिक जीवन में उसकी कर्मधारा चलती रहती है पर दार्शनिक अन्तरंग जीवन में सर्वत्र ज्ञानधारा व्याप जाती है। जिसके फलस्वरूप वह सदा ही अपने सर्व बाह्य रागात्मक कर्मधारावा
रावाले कत्यों के लिये अपने को धिक्कारता हआ बराबर अन्दर ही अन्दर उनसे पीछे हटने का. तथा जानधारा में टिकने का प्रयास करता रहता है। ऐसी मिश्रित दशा उसकी उस समय तक चलती रहती है जब तक कि कर्मधारा का अभ्यास पूर्णत: शमन न हो जाये । यही व्यवहार व निश्चय मार्ग की मैत्री है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह दोनों को उपादेय मानता है । कर्मधारारूप व्यवहार करते हुए भी वह उसे सर्वथा अपराध ही समझता रहता है और ज्ञानधारा को सत्य समझता रहता है।
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