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________________ १५. बन्य-तत्त्व २. संस्कार निर्मिति पड़ा है, तो मुट्ठी खोलने के लिये कभी तैयार नहीं, भले शिकारी पकड़ ले। किसने पकड़ा है उसको? हंडियाने या उसके लालच ने ? हंडिया बेचारी का क्या दोष ? अब छोड़े और भाग जाए। पड़ी रहेगी बेचारी। वह कब उसे पकड़ने को वृक्ष पर चढ़ेगी ? बन्दर की मूर्खता पर आज मैं हंस रहा हूँ पर खेद है कि अपनी मूर्खता मुझे दिखाई नहीं देती। शरीर, धन व कुटुम्बादि की सेवा स्वयं स्वीकार करके कोस रहा हूँ कर्मों को । हाय इन कर्मों ने मुझे पकड़ा, देखो निष्कारण तंग कर रहे हैं। प्रभो ! किसने पकड़ा है तुझे? विचार तो सही, सेवा चाकरी छोड़, कौन रोकता है तुझे? ये बेचारे जड़ कर्म तो बिल्कुल निरपराध हैं, ये कब पकड़ते हैं तुझे ? तू स्वयं ही बुला-बुलाकर पकड़ लेता है उन्हें । अपराध अपना और गले मंढे कर्मों के, कैसे मजे की बात है ? हे भाई ! तुझे कल्याण चाहिए, हित चाहिए,सुख चाहिए, शान्ति चाहिए, तो बाहर में इनकी ओर न देख । देख अपनी ओर, अपनी प्रभुता की ओर । तू तो पहले ही से कल्याण रूप पड़ा है, तू तो अब भी शान्ति का भण्डार है । किसने छीना है उसे ? कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है तेरा । अपनी शान्ति को सेवा चाकरी में खोजने जाता है, बस इस कल्पना ही ने तो पकड़ा है तुझे । यही वे बन्धन हैं जो महात्माओं ने तोड दिये हैं । तू भी तोड दे तो वैसा ही हो जावे । सिद्ध-प्रभु में और तुझ में तनिक भी तो भेद नहीं है, काहे दुहाई देता है । उनके द्वार पर कि तुझे शान्ति प्रदान करें । तू सर्व-समर्थ है, शक्ति का पुञ्ज है। २. संस्कार निर्मिति-शरीर व कुटुम्ब की सेवा चाकरी का भाव कौन पैदा करता है तेरे हृदय में ? क्या कोई सिखाता है तुझे ये बातें ? पैदा होते ही बालक दौड़ पड़ता है स्तन की ओर । कौन सिखाता है उसे ? स्वयं सीखा सिखाया ही तो उत्पन्न हुआ है। पहले कभी यह क्रिया करने लगा था, आज आदत बन गई, संस्कार बन गया। कहीं भी जाये, इस रूप में या उस रूप में, मनुष्य के शरीर में या तिर्यञ्च के शरीर में, नरकगति में या देव-गति में, संस्कार को सदा साथ लेकर जाता है । फिर किस सिखाने-वाले की आवश्यकता है ? स्वयं सीखता है, स्वयं संस्कार बनाता है, स्वयं साथ ले जाता है। स्वयं तू ही तो है इनका निर्माण करने वाला । तू स्वयं इनको न बनाये तो कर्म बेचारे क्यों आयें ? तू इन संस्कारों को तोड़ दे तो कर्म भी बेचारे तेरा साथ छोड़ दें। कर्मों से प्रार्थना करने से कि 'भाई ! अधिक न सताओ, कृपया मुझे रास्ता दे दो, में धर्म करने जा रहा हूँ, क्या लाभ है ? इन बेचारों को क्या सुनाई देता है ? अपने संस्कारों को पहचाने, उनका निर्माण तू नित्य किस प्रकार कर रहा है उसे जाने, तथा ऐसी भूल करना छोड़ दे तो बन्धन काहे का? स्वतन्त्र ही तो पड़ा है। अपने अन्दर में उतरकर देख, संस्कार प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं । संस्कार उस आदत का नाम है जो तूने धीरे-धीरे नित्य नये-नये अपराध करके आस्रव के द्वारा पुष्ट की है, और उसी पुरानी आदत रूप संस्कारों से प्रेरित हुआ नित्य नये-नये अपराध कर रहा है, बिल्कुल विवेक नहीं रहा है। अपराध, संस्कारों का निर्माण, आगे उनकी प्रेरणा से पुन: -पुन: वही नये-नये अपराध, संस्कारों का और पोषण, अधिक-अधिक अपराध, संस्कारों की अधिक-अधिक पुष्टि । बस यही तो वह चक्र है जिसमें तू उलझा पड़ा है। यह बात समझनी भी कठिन नहीं है, सबके अनुभव में आई है, केवल विश्लेषण करने की कमी है । ज्ञानी व अज्ञानी में तथा एक फिलास्फर व एक साधारण व्यक्ति में इतना ही तो अन्तर है कि फिलास्फर तो वस्तु का विश्लेषण करके बना लेता है सिद्धान्त और दूसरा रह जाता है ताकता उसके मुँह की ओर । सिद्धान्त का आधार अनुभव है, विश्लेषण करो तो आप भी बना सकते हो । यदि सिद्धान्त बनाने की शक्ति नहीं तो समझ तो सकते ही हो । देखिये दृष्टान्त देकर समझाता हूँ संस्कार निर्माण का क्रम तथा उस संस्कार की वह शक्ति जो तुझे नये-नये अपराध करने की प्रेरणा देती है। देखिये उस व्यक्ति की ओर जो आज का एक विश्वविख्यात डाकू है। क्या वह डाकू बनकर जन्मा था? नहीं, जन्मा था तब तो बिल्कल भोला-भाला था, छोटा सा बच्चा था, बडा प्रिय लगता था। आज का यह भयानक रूप कैसे धारण किया? डाकू बनना उसने प्रारम्भ किया था उस समय जब कि वह स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया था। पहले ही दिन उसकी दृष्टि पड़ी अपने साथी की पैन्सिल पर, जो उसे कुछ सुन्दर सी लगी । न मालूम एक विचार सा कहाँ से उठा उसके अन्दर ? एक बिजली की चमक की भाँति उसे कुछ धक्का सा लगा-"और यदि उठा लूँ इसे तो? अवकाश का ही तो समय है ? रैसेस है। कोई भी तो नहीं है यहाँ ? सब साथी खेल में लगे हैं ? कोई भी तो नहीं देख रहा है ? किसी को क्या पता चलेगा कि मैंने उठाई है ?" और चारों ओर चौकन्ना होकर न जाने किसे खोज रहा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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