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१५. बन्ध-तत्त्व
२. संस्कार निर्मिति है वह? हाथ यकायक बढ़ता है पैन्सिल की ओर । पर यह क्या ? 'अरे ! नहीं नहीं यह ठीक नहीं है । यदि किसी ने देख लिया तो? मार पड़ेगी बुरी तरह और वह बेचारा साथी तो रोयेगा। नहीं नहीं मत उठा', हृदय बुरी तरह काँपता हुआ सा । पुन: चौकनीसी दृष्टि चहुँ ओर । और साहस बटोर कर उठा ही लेता है उस पैन्सिल को, हृदय के कम्पन को दबाने का प्रयत्न करता हुआ। घर जाकर प्रसन्न होता है उस पैन्सिल को देखकर । अरे दो पैसे की तो होगी ही, कितनी सुन्दर है, चलो आज तो दो पैसे कमाये।
और अगले दिन वही दृष्टि पड़ी एक साथी की पुस्तक पर । चौकन्नी सी आँखे घूमने लगी यकायक चारों ओर, हृदय में कम्पन, हाथ भी कुछ काँपे-काँपे से, परन्तु न तो था कल जितना विस्मय, न था कल जितना भय, न था कल जितना कम्पन, न थी कल जितनी ग्लानि । किताब उठाई और बस्ते में डाल ली । घर जाकर किताब को उलट-पलटकर देखा तो बिल्कुल नई है। वाह-वाह ! कितना अच्छा हुआ। अब तो मुझे किताब खरीदनी ही न पड़ेगी।
तीसरे दिन उसी प्रकार दवात, और फिर चौथे पाँचवें दिन अन्य-अन्य वस्तुएँ। पर आगे-आगे को हीन-हीन विस्मय, हीन-हीन भय, हीन-हीन कम्पन और हीन-हीन ग्लानि । इनके साथ-साथ धीरे-धीरे साहस में वृद्धि । और आज वही है साहसी, निर्भीक डाकू जिसके अन्दर न है विस्मय, न है भय, न है कम्पन , न है ग्लानि । बस बन गया संस्कार, एक पुष्ट और प्रबल डाका डालने का संस्कार । पहली दूसरी आदि स्थितियों में ही रोकता तो रुक जाता, पर आज उसे कितना भी दण्ड मिले वह संस्कार रुकने वाला नहीं। पहले दिन जिस संस्कार का आरम्भ काँपते हुये हृदय से हुआ था, आज वह उसे प्रेरणा करता है, साहस देता है, बड़े-बड़े डाके डालने का।
इसी प्रकार किसी मित्र की प्रेरणा से पहले दिन घृणा-बुद्धि से, काँपते हुए हृदय के साथ, शराब की एक घुटमात्र पी लेने वाले उस व्यकि को आज शराब के बिना चैन नहीं। पहले दूसरों के पैसे से पीनी प्रारम्भ करने वाला आज अपनी लहू-पसीने की कमाई को भी शराब के-लिये फूंक रहा है। कौन शक्ति है, कौन प्रेरणा है ? वही संस्कार की शक्ति, वही संस्कार की प्रेरणा, जिसे उपरोक्त क्रम से स्वयं उसने पुष्ट किया है।
बस बन गया संस्कार-निर्माण का सिद्धान्त । कोई भी व्यक्ति कभी एक नया अपराध करता है, तब संस्कार की रूप रेखा मात्र सी अन्दर में बन जाती है जो उसे पुन: वह अपराध करने के लिये बल प्रदान करती है तथा उसके भय को हटाती है। उससे प्रेरित हुआ वह पुन: उसी जाति का अपराध करता है । उस संस्कार की पुष्टि हो जाती है और वह पुष्ट संस्कार और अधिक प्रेरणा व बल देता है । पुन: उस जाति का अपराध दोहराता है, पुन: संस्कार की पुष्टि हो जाती है और इसी प्रकार पुन:-पुन: नया-नया अपराध या आस्रव और तत्फलस्वरूप संस्कारों की पुष्टि या पूर्व-पूर्व संस्कार में नई-नई शक्ति का बन्ध । इसी प्रकार आगे जाकर बन बैठता है वह एक प्रबल संस्कार, एक आदत, एक इन्सटिंक्ट, जिसको अब यदि दबाना भी चाहेगा तो कुछ असम्भव सा प्रतीत होगा।
इसी प्रकार मैं अनादि से कछ नये-नये अपराध या आस्रव करता चला आ रहा है। जिस-जिस जाति के अपराध करता हूँ उस-उस जाति के अपराध पहले किये थे, अत: उस-उस जाति के संस्कार अन्तरंग में पहले से ही पड़े हैं। अब का किया नया अपराध मिल जाता है अपनी जाति के पूर्व संस्कार के साथ और पुष्ट कर देता है उसे । इसी प्रकार सर्व ही पूर्व-संस्कारों का बराबर सिञ्चन करता चला आ रहा हूँ । बराबर आस्रव तत्त्व के द्वारा उनका पोषण करता चला आ रहा हूँ, बराबर उन्हें वेतन देता चला आ रहा हूँ । यही है वास्तव में मेरे बन्धन अर्थात् बन्धतत्त्व जिसकी प्रेरणा से करता हूँ मैं नित्य नये-नये अपराध, और जिसकी प्रेरणा से स्वीकार की है मैंने शरीर आदि की दासता ।।
यदि आज इस दासता को छोड़कर नये-नये अपराध करना बन्द कर दूँ तो इन संस्कारों को आहार कहाँ से मिलेगा ? इन्हें वेतन कौन देगा? स्वयं सूख जायेंगे बेचारे या भूखे मरते छोड़ जायेंगे मुझे और कोई दूसरा द्वार जा खटखटायेंगे। अत: भाई यदि स्वतन्त्रता चाहिए तो कर्मों को कोसने से कुछ न बनेगा, न ही प्रभु से भिक्षा माँगने से काम चलेगा । स्वतन्त्र रूपसे तने ही इनका निर्माण किया है और स्वतन्त्र रूप से त् ही इन्हें काट सकता है । कैसे ? सो अगले प्रवचन में आ जाएगा।
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