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१६. संवर-तत्त्व
१. भूल निवृत्ति; २. संस्कार निवृत्ति ।
१. भूल निवृत्ति—भव - सन्तप्त इस पथिक को शान्ति प्रदान कीजिए नाथ ! आपकी शरण में आकर क्या इतना भी न मिलेगा ? सुनते आये हैं कि अपने आश्रित को आप अपने समान कर लिया करते हैं। अनेकों अधम उद्धारे हैं आपने । मैं भी तो एक अधम हूँ, मुझ पर भी कृपा कीजिए प्रभु । शान्ति माँगता हूँ और कुछ नहीं । धन सम्पत्ति माँगने
आया हूँ और वह आपके पास है ही कहाँ जो कि दे देते। वही वस्तु तो दी जा सकती है जो कि किसी के पास हो । आपके पास है शान्ति का अटूट भण्डार, मुझे भी दीजिए नाथ । थोड़ी-सी ही दे दीजिए, इस ही में सन्तोष कर लूँगा । देखिए अपने द्वार से खाली न लौटाइये। मेरा तो कुछ न बिगड़ेगा क्योंकि मैं तो पहले ही रंक हूँ, अब भी रंक रह लूँगा । जगत आपकी ही निन्दा करेगा कि काहे का बड़ा जो भूखे की झोली में एक मुट्ठी चावल भी नहीं डालता ।
नहीं नहीं, ऐसा होना असम्भव है, आपकी शरण में जो आया है वह खाली नहीं लौट सकता। मुझमें लेने की शक्ति होनी चाहिए, आप तो मार्ग दर्शा ही रहे हैं। संवर का मार्ग, अर्थात् सम्यक् प्रकार वरण करने का मार्ग, सम्यक्-प्रकार ढक देने का अर्थात् दबा देने का मार्ग। किनको ? आस्रव अधिकार में बताये गए प्रतिक्षण होने वाले नवीन-नवीन अपराधों को जो साक्षात् व्याकुलता रूप हैं, अन्तर्दाहक हैं । उनके दब जाने का नाम ही शान्ति है, अत: यह संवर का मार्ग ही शान्ति का मार्ग है। लो सुनो ! सुनने मात्र 'काम न चलेगा, जीवन में उतारने से काम चलेगा। आजतकं जीव अजीवादि तत्त्वों की रटन्त की है, शान्ति मिले तो कैसे मिले ? अब वैसी बात न समझना, कुछ सूत्र याद करने से कोई लाभ नहीं, उनके रहस्यको जीवन में उतारने से लाभ है । ले तो उसी रहस्य को सूत्रों में नहीं, बड़ी सरल भाषा में, बड़ा सहल करके धीरे-धीरे समझाता हूँ । ध्यान से सुन, विचार कर और आज से ही अपने दैनिक जीवन में उसके अनुसार कुछ परिवर्तन लाने का प्रयत्न कर ।
वे बातें कुछ ऐसी नहीं होंगी जो तू-न कर सके या उनके करने में तुझे कठिनाई पड़े । गुरुदेव बड़े उपकारी हैं। छोटे छोटे बड़े से बड़े शक्तिहीन व शक्तिशाली सबका उपकार करते हैं, सबको मार्ग दर्शाते हैं, उस-उसकी श्रद्धा के अनुसार तथा उस-उसकी शक्ति के अनुसार । पक्षपात् व साम्प्रदायिकता की बात नहीं है, सर्व हित बात है। कोई भी क्यों न हो, पशु हो या देव, ब्राह्मण हो या शूद्र, जो करे सो पावे । जीवन में उतारने का काम करना है, ऊपर की कुछ दिखावे की अथवा शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की या पदार्थों को इधर से उधर धरने की क्रियाओं का नाम करना नहीं है। अहो ! करुणा- सागर गुरुदेव ! कितना सहल बना दिया है मार्ग, हर किसी को अवकाश प्रदान कर दिया है, मानो सर्वधर्म समभाव का बिगुल ही बजाया है । आपके शासन में ब्राह्मण को ऊँचा व शूद्र को नीचा दर्जा प्राप्त हो, ऐसा भेद है ही नहीं और वास्तव में आपके शासन में शूद्र नाम का शब्द ही नहीं है । जिस मार्ग की नींव में ही द्वेष डाला गया हो, ब्राह्मण व शूद्र में द्वेष उत्पन्न कर दिया गया हो, उस मार्ग को साम्यता का मार्ग होने का दावा किया जाए, यह आश्चर्य है । द्वेष व साम्यता दोनों कैसे इकट्ठे रह सकेंगे ? शान्ति प्राप्त हो तो कैसे हो ? मूल में ही भूल है फल कैसे लगे ? भगवन् समझ ! स्वपरभेद विज्ञान प्राप्त करके इस भूल को निकाल दे और फिर साम्य-रस में भीगी उस गुरुदेव की वाणी को सुन ।
यद्यपि आज तक उन क्रियाओं में से आप सब बहुत सी क्रियायें पहले से करते आ रहे हैं जैसे कि देवपूजा आदि, तदपि अन्तरंग अभिप्राय ठीक न होने से उनका वह फल नहीं हुआ जोकि होना चाहिए था अर्थात् शान्ति । इसीलिए यह कहने में आता है कि जितने अधिक धर्म करने वाले व्यक्ति हैं उतने ही अधिक दुःखी हैं। यह बात झूठी भी नहीं है क्योंकि वास्तव में ऊपर से देखने से ऐसा ही दिखाई दे रहा है। उसका कारण यह है कि या तो वे क्रियायें मिथ्या अभिप्राय-पूर्वक की जा रही हैं अर्थात् आस्रव प्रकरण में बताये गए दूसरे अभिप्राय-पूर्वक की जा रही हैं, या केवल कुल परम्परा से बिना समझे की जा रही हैं। सच्चे अभिप्राय-पूर्वक अर्थात् आस्रव प्रकरण में बताए गए तीसरी कोटि
अभिप्राय-पूर्वक इन क्रियाओं को करने वाला तीन-काल में भी कभी दुःखी रह नहीं सकता, ऐसा दावे के साथ कहा जा सकता है । अत: प्रत्येक क्रिया की परीक्षा अपने अभिप्राय से करते हुए चलना है। अभिप्राय पर ही जोर है, वही मुख्य है । क्रिया की इतनी महत्ता नहीं जितनी उसकी है। अतः अभिप्राय को पढ़ने का अभ्यास करना चाहिये ।
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