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१६. संवर-तत्त्व
२. संस्कार निवृत्ति स्थल-स्थल पर दृष्टान्त आदि के द्वारा अभिप्राय पढ़ने का उपाय भी बताया जाता रहेगा। उसे पढ़कर गण-दोष को खोजने तथा अपनी भूलों को दूर करने का प्रयत्न करना, तभी वे क्रियायें सच्ची कहला सकती हैं।
___ एक उदाहरण देता हूँ। किसी साधुको स्वर्ण बनाने की रासायनिक विद्या आती थी। एक गृहस्थ को पता चल गया। विद्या लेने की धुन को लिए वह उस साधु की सेवा करने लगा। दो वर्ष बीत गए, बहुत सेवा की, साधु ने प्रसन्न होकर उसे विद्या दे दी अर्थात् वह कापी जिसमें वह उपाय लिखा था उसे दे दी । प्रसन्नचित्त गृहस्थ घर लौटा, भट्टी बनाई, सारा सामान जुटाया और जिस प्रकार कापी में लिखा था, करने लगा। बड़ी सावधानी बरती कि कहीं गलती न हो जाय। प्रत्येक क्रिया को पढ़-पढ़कर किया, पर स्वर्ण न बना । फलत: श्रद्धा जाती रही। सोचने लगा 'दो वर्ष व्यर्थ ही खो दिए, साधु ने यों ही झूठ-मूठ अपनी ख्याति फैलाने के लिए ढोंग रच रखा था, सोना आदि बनाना उसे आता ही न था। कापी में भी यों ही काल्पनिक बातें मेरे मन बहलाने को लिख दीं' । क्रोध में भर गया वह, पर क्रोध उतारे किस पर ? साधन सही उसकी कापी तो है। चौराहे पर बैठकर लगा कापी को जतों से पीटने । सहसा वही साध उस मार्ग से आ निकला। गहस्थ की मूर्खता को देखकर सब कुछ समझ गया। बोला, “क्यों इतना क्रोध करता है, भूल स्वयं करे और क्रोध उतारे कापी पर? इस बेचारी ने क्या लिया है तेरा? चल मेरे साथ मैं देखता हूँ कि कैसे नहीं बनता सोना?" भट्टी के पास दोनों आये, सामान जुटाया, प्रक्रिया चालू हुई । सब ठीक, परन्तु नींबू पड़ने का अवसर आया तो लगा चाकू लेकर नींबू काटने। साधु बीच में ही बोला, 'क्या करता है ?' 'नींबू काटता हूँ।' 'कहाँ लिखा है इसमें नींबू काटना' 'काटना न सही, नींबू का रस तो लिखा है। बिना काटे रस कैसे निकले?' साधु ने गृहस्थ से नींबू छीन लिया और दोनों हथेलियों के बीच साबुत नींबू रखकर जोर से दबा दिया । रस निचुड़ गया। बोला कि ऐसे निकलता है रस । यह न सोचा बुद्धि लगाकर कि चाकू से लोहे का अंश जाकर सारे फल का विनाश कर देगा ? सोना बन गया और गृहस्थ लज्जित हुआ अपनी भूल पर । परन्तु 'अब पछताए होतक्या जब चिडिया चग गई खेत।' विद्या को साध अपने साथ ही ले गया।
तात्पर्य केवल इतना दर्शाना है कि सर्व क्रिया ठीक होते हुए भी कोई ऐसी भूल जो दृष्टि में आती नहीं सर्व फल का विनाश कर डालती है, और यथाकथित फल न मिलने पर बजाए अपनी भूल खोजने के प्राणी का विश्वास क्रिया पर से ही उठ जाता है और इस प्रकार बजाए हित के अपना अहित कर बैठता है । अत: पहले से ही अभिप्राय की सूक्ष्मता को पढ़ने के लिये कहा जा रहा है ताकि सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल का भी सुधार किया जा सके और क्रिया से वही फल प्राप्त किया जा सके जो कि उससे होना चाहिये।
२. संस्कार निवृत्ति—संवर कहते हैं प्रत्येक क्षण होने वाले नये-नये अपराध को रोक देना अर्थात् जिस प्रकार भी लौकिक-भोगादि सम्बन्धी अथवा ख्याति-प्रतिष्ठा आदि सम्बन्धी बहिर्मुखी वृत्ति रोकी जा सके उसे रोकना कर्त्तव्य है। वास्तव में पदार्थों को जानना अपराध नहीं है । जानने मात्र से राग द्वेष उत्पन्न नहीं हो सकता । राग द्वेष होता है इष्टानिष्ट बुद्धि से । देखिए आप अपने बरामदे में खड़े सड़क की ओर देख रहे हैं । अनेक पशु, पक्षी व व्यक्ति सड़कपर से गुजरते आपने देखे । कुछ परिचित थे और कुछ अपरिचित भी। कुछ देर पश्चात् उसी सड़क पर देखा अपने पुत्र को आते हुए। तुरन्त यह सोचकर कि कुछ कार्य-वश मेरे पास ही आ रहा है, एकाएक बोल उठे “क्यों ! क्या काम है ? इतनी जल्दी कैसे लौट आए आज ?" पुत्र को देखकर यह विकल्प क्यों ? कारण यही कि अन्य व्यक्तियों में थी माध्यस्थता और पुत्र में थी इष्टता । इसी प्रकार आप इन्हीं आँखों से देखते हो हस्पताल में पड़े बुरी तरह कराहते हुए अनेक रोगियों को और इन्हीं नेत्रों से देखते हो अपने रोगी पुत्र को । परन्तु जिस व्याकुलता तथा वेदना का भाव पुत्र को देखकर आप में जागृत होता है वह अन्य रोगियों को देखकर क्यों नहीं होता ? कारण यही कि पुत्र में है इष्टता और अन्य में है माध्यस्थता । और यदि कदाचित् अन्य को देखकर थोड़ी मात्रा में व्याकुलता हो भी गई तो उसका कारण है कुछ करुणा, जिसका आधार है राग या इष्टता । यदि पूर्ण माध्यस्थता होती तो उन्हें देखकर बिल्कल व्याकलता न होती।
उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार हमें यह देखना है कि ऐसी कौन सी क्रियायें सम्भव हैं जिनमें इष्टता अनिष्टता को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से अवकाश न हो। अनेकों क्रियाएँ होनी सम्भव हैं। संवररूप क्रियाएँ तीन भागों में विभाजित की गई हैं-एक गृहस्थ के योग्य दूसरी श्रावक के योग्य और तीसरी साधु के योग्य । तीनों ही प्रकार की क्रियाओं का विशेष विस्तार आगे साधना-खण्ड में किया जाने वाला है। For Private & Personal Use Only
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