________________
१७. निर्जरा - तत्त्व
१. निर्जरा; २. संस्कार क्षति; ३. प्रतिकूल वातावरण; ४. संवर में निर्जरा ।
१. निर्जरा — यह निश्चय हो जाने के पश्चात् कि संवर तत्त्व के द्वारा अर्थात् वहाँ बताए गये विस्तृत क्रिया कलाप की साधना द्वारा शान्ति के बाधक संस्कारों का दमन किया जाना शक्य है, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इतना ही पर्याप्त है ? नहीं-नहीं, हे भव्य ! जल्दी मत कर, घबरा भी नहीं, सुनता रह, क्योंकि विषय लम्बा है। अभी मार्ग प्रारम्भ ही हुआ है, इस मार्ग की पूर्णता तो बहुत आगे जाकर होगी । संवर से बेखबर विकल्प- सागर में गोते खाते जीवों की तो बात नहीं, संवर से बाखबर के भी जीवन में से कुछ देर के लिए आंशिक रूप में या आयु पर्यन्त के लिए केवल इन विकल्पों को रोक देना मात्र पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा करनेसे भले ही वे पूर्व के संस्कार आगे को और अधिक पुष्ट न होने पावें तथा वर्तमान में जीवन कुछ हल्की सी शान्ति को लिए हुए अनुभव में आने लगे, परन्तु पूर्व से डेरा जमाए हुए उन संस्कारों से तो बच न पाएगा। भले ही आज के संवरण के कारण उनको कुछ निद्रासी या बेहोशीसी आ गई हो, परन्तु तेरे तनिक भी असावधान होने पर या यह अनुकूल वातावरण बदल जाने पर या काल चक्र द्वारा जबरदस्ती किसी प्रतिकूल वातावरण में फेंक दिए जाने पर, क्या वे संस्कार सचेत होकर एकदम तुझ पर आक्रमण न कर बैठेंगे ? उस समय सम्भवतः उस आक्रमण को तू सह सकने में समर्थ न होगा और बह जाएगा पुनः उनके द्वारा प्रेरित उसी पहली रौ में । शत्रु का बीज नाश कर देना ही नीति है । जिस प्रकार कि एक कुशा-घास के पाँव में चुभ जाने पर चाणक्य ने उस सारी जंगल की कुशा-घास का बीज नाश कर दिया था, उसी प्रकार जब तक एक भी संस्कार शेष है तुझे सन्तोष नहीं करना चाहिए। बराबर उसके उच्छेद का उद्यम करते रहना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा या अधिक-अधिक, अपनी पूरी शक्ति लगाकर ।
जिस प्रकार कोई राजा अपने शत्रुओं से सावधान होकर उन्हें पराजित करने लिये पहले उस दल को नहीं छेड़ता कुछ छिपा छिपा सा दूर से ही प्रहार करता है, प्रत्युत उस दल का पहले सामना करता है जो बिल्कुल उसके नगर में प्रवेश कर गया है । परन्तु उसे परास्त कर लेने के पश्चात् भी वह चैन से नहीं बैठ जाता बल्कि तुरन्त ही उस छिपकर प्रहार करने वाले शत्रु की ओर दौड़ता है तथा उसे ललकार कर गुफाओं से बाहर निकालता है। एक-एक का विनाश करता हुआ तब तक चैन नहीं लेता जब तक कि ऐसी अवस्था में न पहुँच जाए कि उसकी ललकार सुनने वाला वहाँ कोई न रहे। उसी प्रकार शान्ति नगर का राजा यह भगवान आत्मा आस्रव तथा बन्ध तत्त्वों से अर्थात् नवीन विकल्पों
तथा पूर्व संस्कारों से सावधान होकर उन्हें पराजित करने के लिये, भले पूर्व- सञ्चित संस्कारों को छेड़ने की बजाय पहले नवीन-विकल्पों को परास्त करे अर्थात् संवरण करे, परन्तु केवल संवरण करने पर ही वह चैन से नहीं बैठ जाता, सन्तुष्ट नहीं हो जाता बल्कि तुरन्त ही पूर्व-संस्कारों पर दौड़ता है और क्रम-क्रम से एक-एक को ललकार कर उनसे युद्ध ठानता है । तब तक चैन नहीं लेता जब तक कि उनका मूलोच्छेद न कर दे ।
और भी, जिस प्रकार नवीन जल-प्रवेश के मार्ग को रोक देने मात्र से जोहड़ में भरे गन्दे पानी के कीटाणुओं से सम्भावित रोगप्रसार का भय दूर नहीं हो जाता बल्कि भयमुक्त होने के लिए उस सम्पूर्ण जल को सूर्य किरणों द्वारा सुखाना आवश्यक है। उसी प्रकार नवीन विकल्पों के प्रवेश को रोक देने मात्र से अन्तरंग में पड़े संस्कारों से सम्भावित विकल्पों के प्रसार का भय दूर नहीं हो जाता बल्कि मुक्त होने के लिये इन सम्पूर्ण संस्कारों का अन्तर्दृढ़ता, बल व साहस के साथ विनाश करना आवश्यक है।
यह बात आप सबके अनुभव में भी आ रही है । मन्दिर के अनुकूल वातावरण में प्रातः की इस गुरुवाणी का श्रवण करते हुए एक घण्टे के लिये भले ही कुछ शान्ति सी, कुछ हल्कापनसा, कुछ अनोखासा प्रतीत होने लगता है कि अरे ! क्या रखा है इस गृहस्थ जञ्जाल में, जिस-किस प्रकार भी बस छोड़ दे इसे । इतनी तीव्र जिज्ञासा भी कदाचित् उत्पन्न हुई होगी कि यदि गुरुदेव होते तो अवश्य उनकी शरण को छोड़ अब मैं घर न जाता । परन्तु मन्दिर से निकलते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org