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________________ १५. बन्ध-तत्त्व ( १. बड़ी भूल; २. संस्कार निर्मिति। १. बड़ी भूल-स्वतन्त्रता की उपासना के द्वारा सम्पूर्ण बन्धनों का विच्छेद करके, पूर्ण स्वतन्त्रता सहित, निज चैतन्य-देश में शान्ति-रानी के संग विलास करने वाले, परब्रह्म अनन्तसिद्ध भगवन्त मुझे भी शक्ति प्रदान करें कि उनकी भाँति मैं भी इन बन्धनों का विच्छेद करके निज साम्राज्य का भोग कर सकूँ। परन्तु बन्धन क्या है ? यह बात पहले जाननी पड़ेगी। क्या किसी ने बेड़ी डाली है पाँव में, या बन्द किया है जेलखाने में ? कुछ भी तो ऐसी बात दिखाई नहीं देती, फिर भी बन्धन क्या ? ऐसा नहीं है भाई ! यह बन्धन बेड़ियों रूप नहीं है पर बेड़ियों से भी अधिक दृढ़ है । यह बन्धन जेलखाने रूप नहीं है पर जेलखाने से भी अधिक प्रबल है । सो दो प्रकार से देखा जा सकता है--एक अन्तरंग में और दूसरा बाहर में। यदि मैं स्वयं अन्तरंग में न बन्यूँ तो बाहर में मुझे बाँधने वाली कोई शक्ति नहीं । इस शरीर को अपना मानकर निष्प्रयोजन इसकी सेवा में जुटे रहना अथवा इसके लिए कुछ इष्ट से दीखने वाले धनादिक अचेतन पर पदार्थों की तथा कुटुम्ब आदि चेतन पर पदार्थों की सेवा में जुटे रहना तो अन्तरंग बन्धन है, जो स्वयं मैंने अपने सर लिया हुआ है। कुटुम्ब आदि वास्तव में बन्धन नहीं हैं। यदि मैं इनकी सेवा न करूँ तो कोई शक्ति ऐसी नहीं जो मुझे इनका सेवक बना सके। सेवक बने रहना मेरी अपनी भूल है और मज़ा यह कि इस भूल में भी मैं आनन्द मानता हूँ। यह मेरी भूल ही अन्दर में मुझे कुछ प्रियसी, कुछ मधुर सी लगती है। यदि मेरा कोई अत्यन्त हितैषी मुझे इससे छुड़ाने के लिए इनकी स्वार्थता दर्शाए भी तो मुझे वह भाता नहीं। मैं अन्तरंग में किसी दाह से व्याकुल हुआ, हाय-हाय करता अन्तरंग से पुकार अवश्य करता हूँ, पर उसकी मानने को एक भी तैयार नहीं । कितना दृढ़ है यह बन्धन ? इसके कारण से आस्रव-तत्त्व में दर्शाये गये कार्मण-शरीर या सूक्ष्म-शरीर में उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि होते जाना, इस शरीर का नित्य नये-नये जड़ कर्मों के प्रवेश द्वारा पुष्ट होते रहना, सो बाह्य बन्धन है अर्थात् कर्मबन्ध है। यद्यपि अत्यन्त सक्षम होने से यह शरीर हम को दृष्टिगत नहीं होता, परन्तु प्रत्यक्ष-ज्ञानी इसे हस्तामलकवत् देखते हैं। तदपि मेरे कल्याण में यह बेचारा जड़ क्या बाधा पहुंचा सकता है ? यदि मैं स्वयं भूल न करें तो पड़ा है, पड़ा ही रहेगा। पड़ा रहने दे, क्या माँगता है बेचारा । “कर्म बेचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घनघात लोह की संगत पाई।" यदि मैं इन पर पदार्थों की सेवा स्वयं स्वीकार न करूं तो कोई शक्ति नहीं कि जबरदस्ती मुझे इनकी सेवा करने को बाध्य कर सके । इनकी सेवा स्वीकार करने वाला मैं हूँ, बिना किसी बाह्य के दबाव के स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करता हूँ और पीछे पुकारा करता हूँ कि हाय-हाय इन कर्मो न मुझे पक़डा, कोई छुड़ाओ कोई छुड़ाओ। अरे ! कैसी मर्खता है? वृक्ष की कौली भरकर यदि मैं आते जाते पथिकों से यह पकार करूँ कि भाई ! मेरी सहायता करो, देखो इस वृक्ष ने मझे पकड़ा है, इससे मुझे छुड़ाओ, तो कितनी मूर्खता होगी ? मैं नित्य अन्य को उपदेश देता हूँ, तोते का दृष्टांत सुना-सुना कर मानो जगत को रिझाता हूँ। शिकारी के द्वारा लटकाई गई नलकी पर बैठा तोता नलकी घूम जाने के कारण जब स्वयं घूमने लगता है तो यह जानकर कि 'अरे मैं तो नीचे गिरा', नलकी को और दृढ़ पकड़ लेता है और उस पर उल्टा लटका रहता है, परन्तु विचारता यह रहता है कि नलकी ने मुझे पकड़ लिया है । पर फड़फड़ाता है उड़ने के लिये परन्तु पाँव न छोड़े तो कैसे उड़े ? 'नलकी ने मुझे पकड़ा कोई छुड़ाओ' । वही दशा तो मेरी है । स्वयं दासता स्वीकार करके, 'हाय इस दासता से मुझे छुड़ाओ' । कितनी हंसी की बात है ? देखो बन्दर की मूर्खता, शिकारी के द्वारी पृथ्वी में गाड़ी चनों से भरी हंडिया में चनों के लालचवश हाथ डाले स्वयं, चनों की मुट्ठी भरे स्वयं और बन्द मुट्ठी हंडिया के मुँह मे से न निकल सके तो पुकार करे, हाय-हाय हंडिया ने मुझे पकड़ा, कोई छुड़ाओ कोई छुड़ाओ। यदि उस समय उसको यह कहा जाए कि भाई ! मुट्ठी को खोल दे, छुटा ही तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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