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________________ १४. पुण्यास्त्रव ९. चतुर्विध क्रिया अंशों पर से किया जा सकता है । शान्ति का अंश अधिक रहने पर कुछ शान्ति की ओर झुका हुआ और अशान्ति का अंश अधिक रहने पर कुछ अशान्ति की ओर झुका हुआ स्वाद आता है । फलितार्थ निकला यह कि पाप क्रिया तीव्र अशान्तिरूप है क्योंकि वहाँ भोगाभिलाष के साथ-साथ भोगने की व्यग्रता का स्पष्ट वेदन हो रहा है; दूसरी क्रिया सर्वथा मन्द अशान्ति रूप है क्योंकि वहाँ भोगाभिलाष सम्बन्धी ही रागद्वेषादि हैं, भोगने सम्बन्धी व्यग्रता नहीं। तीसरी क्रिया शान्ति अशान्ति के मिश्रणरूप है, क्योंकि यहाँ भोगाभिलाष का अभाव है और उसके भोगने की व्यग्रता का भी। जितने अंश में क्रिया करने के प्रति व्यग्रता है, उतनी अशान्ति है और जितने अंश में वीतरागता है उतने अंश में शान्ति । चौथी क्रिया सर्वथा शान्तिरूप है। इसपर-से इन चारों की हेयोपादेयता का निर्णय करना बड़ा सहज हो जाता है । पहली पाप क्रिया अशान्ति के कारण सर्वथा हेय है। दूसरी क्रिया अशान्ति के कारण यद्यपि हेय है पर पहली की अपेक्षा मन्द अशान्ति होने के कारण कथञ्चित् उपादेय भी है। तीसरी क्रिया यद्यपि क्रियारूप न होकर भावरूप है, शान्ति का अंश रहने के कारण उपादेय है, परन्तु चौथी क्रिया की अपेक्षा अशान्ति का अंश रहने के कारण हेय है। चौथी क्रिया पूर्ण शान्ति रूप होने के कारण पूर्ण उपादेय है। यह चौथी क्रिया वास्तव में आस्रवरूप नहीं है, अपराध रूप किसी तरह भी नहीं है। यह संवररूप तथा निर्जरारूप है । अर्थात् ज्ञानधारा में रंगी सर्वक्रियायें उपादेय हैं और कर्मधारा में रंगी सर्व क्रियायें हेय हैं । आंशिक ज्ञानधारा में रंगी क्रियायें प्रथम भूमिका में अभ्यास करने के अर्थ प्रयोजनवान् हैं। इस सारे प्रकरण में पाप के अतिरिक्त दोनों शुभ-क्रियाओं को सर्वथा तथा कथञ्चित् अपराधरूप बताया गया था, सो सिद्ध कर दिया गया। परन्तु इसका तात्पर्य उन शुभ-क्रियाओं का जीवन में से सर्वथा निषेध करना नहीं है बल्कि अभिप्राय बदलना है । उन क्रियाओं में जो 'बहुत अच्छी हैं, हितरूप हैं, ऐसा मिठास वर्तता है, उसे छुड़ाने का तात्पर्य है। ऐसा अभिप्राय सर्वथा हेय ही है । परन्तु अभिप्राय के हेय हो जाने पर क्रियायें एक दम छोड़ दी जायें, ऐसा नहीं हुआ करता, जैसाकि पहले दृष्टान्त द्वारा समझा दिया गया है। अब प्रश्न होता है यह कि अभिप्राय बद्ल जाने के पश्चात् क्रिया कौन-सी करें, क्योंकि कुछ करना तो पड़ेगा ही, निष्क्रिय तो रह नहीं सकता? इस प्रश्न का उत्तर लेने के लिये हमें उपरोक्त चारों क्रियाओं में से छाँट करनी है। परन्तु जिसमें चारों प्रकार की क्रिया करने की शक्ति न हो वह कितनी में से छाँट करेगा ? उतनी में से ही तो करेगा जितनी कि वह कर सकता है । ज्ञानी जीव जिन्होंने कुछ भी शान्ति का वेदन कर लिया है वे तो चारों क्रियायें कर सकते हैं और इसीलिये उन्हें तो,चारों में से छाँट करनी है, परन्तु वे व्यक्ति जिन्होंने कुछ भी शान्ति का परिचय प्राप्त नहीं किया है, केवल पहली दो क्रियायें ही कर सकते हैं । अगली दो उनके पास हैं ही नहीं, क्या करें ? यद्यपि अभिप्राय में से भोगाभिलाष जाती रही है, परन्तु शान्ति के वेदन-रहित होने से इनका समावेश तीसरी क्रिया में नहीं किया जा सकता । इसलिये उन्हें केवल पहली दो क्रियाओं में से ही छाँट करनी है। विषय स्पष्ट हो गया । ज्ञानी व्यक्ति तो चौथी क्रिया करने का ही भरसक प्रयत्न करेगा, परन्त अल्प भमिका में शक्ति की हीनता वश वहाँ अधिक समय न टिका रह सके तो शेष समय तीसरी क्रिया में बिताने का प्रयल करेगा। दूसरी क्रिया उससे होगी ही नहीं क्योंकि शुभ-क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति तीसरी कोटि में चली जायेगा। गृहस्थ दशा में, करने का अभिप्राय न होते हुए भी पूर्व-संस्कारवश यदि कदाचित् पहली क्रिया हुई भी तो उसके प्रति अपना बहुत अधिक निन्दन ग्रहण करेगा। परन्तु अज्ञानी जीव अभिप्राय बदल जाने पर और शान्ति की जिज्ञासा जागृत हो जाने पर दूसरी क्रिया को करने का तथा तीसरी क्रिया की कोटि में प्रवेश पाने का भी भरसक प्रयत्ल करेगा। पहली क्रिया करने का स्वयं प्रयत्न नहीं करेगा, परन्तु यदि संस्कारवश हो ही गई तो उसके लिये अपनी निन्दा करेगा। __शास्त्र से उधार ली हुई 'शुद्धोऽहं', 'प्रबुद्धोऽहं', 'निरञ्जनोऽहं', अथवा ब्रह्मास्मि' की रट लगाने से तो तू वह बन जायेगा. क्रमपर्वक अभ्यास करने से ही बनेगा। प्रथम क्रिया के सोपान को छोडकर द्वितीय क्रिया के सोपानपर. उस पर पाँव जमने के उपरान्त उसे छोड़कर तृतीय सोपान पर, और इसमें भी अभ्यस्त हो जाने पर चतुर्थ सोपान पर चढ़ते जाना ही वह क्रम है । बताइये अब कहाँ रहा विरोध को अवकाश ? परन्तु अपराध रूप तो वे क्रियायें रही ही रहीं। सिद्धान्त तीन काल भी बाधित नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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