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________________ १४. पुण्यात्रव ९. चतुर्विध क्रिया आपको क्लाक की टन-टन सुनाई नहीं देती। अपनी चञ्चलता के कारण यह बड़ी द्रुतगति से गमन कर सकता है। अभी गृहस्थ सम्बन्धी विचार कर रहा है तो अगले ही क्षण मोक्ष व शान्ति सम्बन्धी । इन दो विचारों के बीच का अन्तराल कभी अधिक भी हो जाता है और कभी कम भी। अधिक अन्तराल होने पर तो हमें यह जान पड़ता है कि एक समय में एक ही कार्य हुआ और दूसरा कार्य कुछ देर पश्चात् दूसरे समय में हुआ, परन्तु अल्प अन्तराल होने पर हमें ऐसा लगने लगता है कि काम युगपत् हो रहे हैं। जैसे कि यह प्रवचन सुनते हुए भी इस क्लाक की टन-टन आप कदाचित् सुन लेते हो। यद्यपि मन, वचन व काय इन तीनों की क्रियाओं में स्वतन्त्रता देखने को मिलती है, परन्तु ये सब क्रियायें बुद्धि पूर्वक नहीं हुआ करती, स्वत: चला करती हैं । बुद्धिपूर्वक की मन, वचन व काय की क्रियाओं में भेद नहीं हुआ करता, मन से बुद्धि राजाना. उसी दिशा में शरीर से गमन किया जाना. उसी के मकान पर जाकर रुक जाना और उसी व्यक्ति विशेष से वही बातें की जाना । इसी प्रकार मनकी विचारणाओं के ऊपर भी शरीर व वचन की क्रियाओं का प्रभाव बराबर पड़ा करता है। क्रिया ठीक चल रही है या नहीं यह देखने को मन स्वत: लौटा करता है। मन, वचन व काय इन तीनों की उपरोक्त प्रवृत्तियों से सब परिचत हैं । केवल विश्लेषण न कर पाने के कारण हमें उनके क्रम का पता नहीं चलता। १. मन को हर समय कुछ न कुछ विचारने को चाहिये । यह खाली नहीं रह सकता । २. मन एक समय में एक ही विचार कर सकता है । ३. बुद्धिपूर्वक की गई शरीर व वचन की क्रियाओं से मन भी उसी ओर आकर्षित हो जाता है। इस सिद्धान्त पर से यह स्पष्ट हो गया कि मन को किसी एक क्रिया-विशेष में जुटा देने पर वह उस समय दूसरी क्रिया न कर सकेगा और शरीर व वचन की सहायता से उसको कुछ देर कदाचित् वहाँ ही अटकाये रखा जा सकता है। अब यह विचारना है कि कौन-सी क्रिया में जुटाना अधिक श्रेयस्कर है। हमारे पास चार क्रियायें हैं-पाप, पापानुबन्धी पुण्य, पुण्यानुबन्धी पुण्य तथा शुद्धक्रिया । इन चारों में कौन क्रिया हितरूप है और कौन क्रिया अहितरूप, इसका तोल हमें शान्ति की तुला से करना है । जिसमें सर्वथा अशान्ति है वह सर्वथा हेय है, जिसमें अधिक अशान्ति है वह अधिक हेय है, जिसमें कुछ शान्ति है वह कुछ उपादेय है, तथा जिसमें सर्वथा शान्ति है वह सर्वथा उपादेय है। उपरोक्त चारों क्रियाओं का तोल करनेसे, इसमें तो कोई संशय है ही नहीं कि पहली पाप और चौथी शुद्ध क्रिया, इन दोनों में पहली अत्यन्त हेय है और चौथी अत्यन्त उपादेय। विचारना तो दूसरी व तीसरी क्रिया के सम्बन्ध उन्हें हेय माने या उपादेय ? इस बात का उत्तर लेने के लिये हमें यह विचारना होगा कि ये क्रियायें अशान्तिरूप ही हैं या कुछ शान्ति रूप भी। एक उपयोग में एक ही कार्य सिद्ध होने के कारण यद्यपि एक ही कार्य में शान्ति और अशान्ति दोनों अंशों का सद्भाव एक समय में रहना कुछ अँचता नहीं है, परन्तु विचार करने पर एक ही कार्य में ये दोनों अंश रहने असम्भव प्रतीत नहीं होते । शान्ति और अशान्ति पृथक्-पृथक् भी रह सकती हैं और मिश्रित रूप में भी। देखिये समझिये। उपयोग व शान्ति में कुछ अन्तर हैं—उपयोग केवल जानने का नाम है और शान्ति है स्वाद का नाम, उपयोग ज्ञान है और शान्ति ज्ञेय, उपयोग प्रकाशक है और शान्ति प्रकाश्य । ज्ञान में भले क्रम रहे पर ज्ञेय में क्रम रहने की आवश्यकता नहीं । यदि दो या अधिक ज्ञेय मिलकर एकमेक हो जायें तो एक ही समय में क्या ज्ञान उसे जान न लेगा ? जैसे कि अनेक पुद्गलों के पिण्ड रूप स्कन्धको या जीव-पुद्गल मिश्रित मनुष्य को जानने में क्या आगे पीछे जानने की आवश्यकता पड़ती है ? या नमक मिर्च आदि अनेको मसालों के मिश्रित स्वाद को जानने या अनुभव करने के क्या क्रम की आवश्यकता पड़ती है ? अर्थात् नमक का स्वाद पहले जानोगे, फिर मिर्च का, पीछे अन्य किसी मसाले का, क्या इस प्रकार जानोगे? इतना अवश्य है कि जिस प्रकार मिश्रित मसाले का स्वाद चखते समय नमक-मिर्च आदि का भिन्न-भिन्न स्वाद न आकर एक विजातीय ही प्रकार का मिश्रित स्वाद आता है, जो न अकेले नमक-सरीखा है न सरीखा: इसी प्रकार मिश्रित शान्ति का स्वाद लेते समय भी शान्ति तथा अशान्ति का भिन्न-भिन्न स्वाद न आकर, शान्ति-अशान्ति-मिश्रित कोई विजातीय ही स्वाद आता है, जो न अकेला शान्ति रूप है, और न अकेला अशान्तिरूप, बल्कि इनके मध्यवर्ती किसी तीसरी ही जातिरूप है, जिसका निर्णय मिश्रण में पड़े शान्ति व अशान्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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