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________________ १४. पुण्यात्रव ९. चतुर्विध क्रिया ही छोड़ने के लिये तैयार हो जाता है । दोनों प्रकार मुश्किल है । किस प्रकार समझायें । ऐसे कहें तो भी नीचे की ओर जाता है और वैसे कहें तो भी नीचे की ओर जाता है। नीचे की ओर जाने को नहीं कहा जा रहा है भगवन् !ऊपर उठने को कहा जा रहा है। दोनों ही प्रकार से नीचे ही जाने का प्रयत्न क्यों करता है ? ऊपर उठने का प्रयत्न कर। जरा विचार तो सही कि इन क्रियाओं को छोड़कर यह समय तू किस कार्य में बितायेगा ? यदि दुकान आदि के धन्धों में, तो लाभ क्या हुआ? कुछ हानि ही हुई, पुण्य की बजाए पाप ही हुआ, धर्म अर्थात् शान्ति तो न हुई। पाप में धकेलने के लिये तो अपराध नहीं बताया जा रहा है इन क्रियायों को, धर्म में ले जाने के लिये बताया जा रहा है, जिससे कि तेरी दृष्टि पाप व पुण्य से अतीत उस तीसरी बात पर जा सके जो तेरे लिये साक्षात् हितकारी है, जिसे तू आज तक भूला हुआ है। दुकान आदि के धन्धे में न जाकर यदि शान्ति में स्थिति पाने सम्बन्धी पुरुषार्थ करना इष्ट है इस समय में, तो इससे अच्छी बात ही क्या है ? अवश्य इन क्रियाओं को त्याग दे शीघ्र त्याग दे, और शान्ति का वेदन करने में निश्चलता धार। ८. मनोविज्ञान–देख सिद्धान्त घटित करते हैं। पहली बात तो यह है कि कोई भी समय ऐसा नहीं कि तू बिना कुछ काम किये रह रहा हो । दुकान का काम, कहीं जाने का काम, कुछ उठाने-धरने का काम, इत्यादिक अनेक कार्यों के अतिरिक्त यदि खाली भी बैठा है तो भी कुछ न कुछ विचारने का काम तो हर समय किया ही करता है । और किसी काम से फरसत मिल जाये तो मिल जाय पर विचार धाराओं से अवकाश पाना कठिन है। मन वह राक्षस है जो हर समय तुझसे काम माँगता है । इसे काम में लगा दे तो लगा दे नहीं तो वह स्वयं तुझे अपने काम में लगा लेगा। 'हातमताई' एक पिक्चर आई थी, उसमें था यह सीन । मन्त्रों द्वारा अपने कार्य की सिद्धि के अर्थ वश किया एक राक्षस अपने स्वामी से कहता है कि 'काम दे नहीं तो तुझे खा जाऊँगा।' यह काम बताया, वह काम बताया, आखिर कब तक? इतने काम थे ही कहाँ कि एकसमय के लिये भी खाली न रहने पावे वह ? विचारा कि यह तो अच्छी बला मोल ले ली, अच्छाई के लिए सिद्ध किया था इसे परन्तु गले ही पड़ गया। वह अब छोड़े से भी तो नहीं छटता। विचार-विचार कर एक उपाय सूझा । ठीक है, आओ काम बताता हूँ। एक जीना बनाओ, ऊपर चढ़ो और उतरो, वह टूट जाए तो फिर बनाओ, फिर चढ़ो और उतरो । बराबर इसी भाँति करते रहो जब तक कि मैं तुम्हें न बुलाऊँ । अब तो सब राक्षसपना हवा हो गया। वह खाली न रहने पाया और स्वामी भय से मुक्त हो गया। इसी प्रकार तू भगवान आत्मा, मन तेरा सेवक, परन्तु एक ऐसा सेवक जो हर समय काम माँगता है, एक क्षण को भी खाली नहीं रह सकता है। कार्य न दे तो विकल्प-जाल में उलझाकर ऐसा धक्का दे तुझे कि धरातल पर आकर तड़फने लगे। भाई ! इस राक्षस को किसी न किसी काम में उलझाये रखना ही श्रेय है, भले ही वह कार्य निष्प्रयोजन क्यों न हो। ९.चतुर्विध क्रिया-अब यह देखना है कि वे काम कितनी जाति के होने सम्भव हैं जिनमें कि मन को उलझाया जा सके । कुल क्रियाओं को शान्ति-पथ की दृष्टि से तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है । एक अशुभ-आस्रव के अन्तर्गत बताई गई भोगाभिलाष-सहित तथा भोगों में रमणतारूप अशुभ क्रिया। दूसरी शुभ-आस्रव के अन्तर्गत बताई गई दो जाति की शुभ क्रियायें, एक भोगाभिलाष सहित और दूसरी इससे निरपेक्ष केवल शान्ति की अभिलाषा-सहित । तीसरी है साक्षात् शान्ति के वेदन के साथ तन्मयतारूप शुद्ध क्रिया। शुभ क्रिया के दो भेद हो जाने से कुल क्रियायें चार प्रकार की हो जाती हैं। पहली क्रिया को अशुभ या पाप कहते हैं। शुभ के प्रथम भेद रूप दूसरी क्रिया को पापानबन्धी पुण्य रूप शुभ-क्रिया कहते हैं। शुभ के द्वितीय भेदरूप तीसरी क्रिया को पण्यानबन्धी रूप शभ क्रिया कहते हैं और चौथी क्रिया शुद्ध क्रिया कहलाती है। इन चार क्रियाओं में से एक समय में एक ही क्रिया की जानी शक्य है दो नहीं, अर्थात् मन में एक समय में एक क्रिया सम्बन्धी ही विचार उठ सकते हैं, दो क्रिया सम्बन्धी नहीं। ऐसा हो सकना सम्भव है कि वचन व काय किसी दूसरी क्रिया को करते हों और मन किसी दूसरी क्रिया को, जैसा कि प्रतिदिन अनुभव करते हैं, काय या वचन से तो भगवान की पूजा आदि कार्य करते हैं और मन बाजार में घूमता है । परन्तु यह नहीं हो सकता कि मन ही भगवान की पूजा सम्बन्धी विचार कर रहा हो और उसी समय बाजार में भी घूमता हो । जैसे कि ध्यान-पूर्वक यह प्रवचन सुनते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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