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१४. पुण्यात्रव
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७. पुण्य समन्वय
गया। क्या कुछ अन्तर पड़ा तीसरी स्थिति के प्रेम में? अवश्य पड़ा और सम्भवत: अब तो उस दत्तक पुत्र पर भी वह अन्तर कुछ प्रकट सा होने लगा। कभी-कभी धमकाने की भी नौबत आने लगी। अब बालक हो गया दो वर्ष का। बताइए अब भी प्रेम रहा उस पहले बालक पर ? नहीं, अब तो कुछ भार दीखने लगा वह । यद्यपि शर्म व लिहाज के कारण स्वयं बालक को विदा न किया पर यह इच्छा अवश्य रही कि जितनी जल्दी चला जाए अच्छा है।
देखिये, विश्वास में अन्तर पड़ते ही प्रेम में अन्तर पड़ गया। पहली स्थितियों में वह अन्तर सूक्ष्म रहा, बाहर प्रकट नहीं होने पाया और आगे की स्थितियों में उत्तरोत्तर स्थूल होता गया तथा अब बाहर भी उसके चिन्ह दिखाई देने लगे। इस उदाहरण पर से यह बात भली भाँति जानी जा सकती है कि अभिप्राय बदल जाने पर किस क्रम से क्रिया में धीरे-धीरे अन्तर पड़ा करता है तथा अभिप्राय में क्रिया का निषेध वर्तते हुए भी पहली स्थितियों में क्रिया बराबर होती रहती है।
और भी एक सुन्दर व स्पष्ट उदाहरण है। एक किसान खेती करता है और एक कैदी भी। दोनों ही दत्तचित्त काम में जटे हए दिखाई देते हैं. दोनों ही खेती को फली देखकर प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं। क्रिया दोनों से हो रही है. पर क्या अभिप्राय दोनों का समान है ? किसान हित बुद्धि से खेती करता है और कैदी दण्ड समझकर । किसान की तन्मयता हित बुद्धि के कारण ध्रुव है और कैदी की क्षणिक । आज छुट्टी मिले तो चाहे खेती में आग लगे, उसकी बला से। खेती के लिये जेल में रहने को तैयार नहीं। परन्तु किसान को मृत्यु-शय्यापर पड़े हुए भी सम्भवत: यही विचार रहे कि कहीं खेत में गाय न घुस गई हो। किसान की प्रसन्नता उसके फल को भोगने के लिये है और कैदी की प्रसन्नता केवल अपने परिश्रम को फलित हुआ देखने के कारण, भोक्तापने से निरपेक्ष । किसान की खेती अभिप्राय के अनुकूल और कैदी की खेती अभिप्राय के प्रतिकूल।
बस इस प्रकार तेरी धर्मिक क्रियायें हैं अभिप्राय के अनुकूल, हितबुद्धिपूर्वक, उनमें मिठास लेते हुए; और ज्ञानी की क्रियायें हैं अभिप्राय से प्रतिकूल, अहित बुद्धि रखकर, उसमें कुछ कड़वास लेते हुए। महान अन्तर है, आकाश-पाताल का अन्तर । धान्य कूटते समय देखने-वाले को क्या पता कि यह धान्य कूटता है या तुष ? ओखली में ऊपर तो तुष ही दिखाई देता है । इसी प्रकार ज्ञानी को पूजा आदि करते देखकर तू क्या समझे कि यह भगवान की पूजा करता है या अपनी शान्ति की? ऊपर से तो भगवान की ही पूजा करता है। देखम देखी वह देखने वाला अपने घर जाकर तुष कूटने लगे तो क्या निकलेगा उसके परिश्रम का फल ? यद्यपि परिश्रम तो उतना ही करना पड़ेगा जितना कि धान्य कूटने-वाले को। उसी प्रकार ज्ञानी की देखम देखी तू भी पूजा आदि करने लगे तो क्या निकलेगा उस परिश्रम का फल ? यद्यपि परिश्रम तो उतना ही करना पड़ेगा जितना कि ज्ञानी को।
७. पुण्य समन्वय-धार्मिक क्रियाओं को अपराध बताया जा रहा है । तेरी तथा ज्ञानी की उन क्रियाओं सम्बन्धी अन्तरंग अभिप्राय में क्या अन्तर है यह बात कल दर्शाई गई। इन क्रियाओं को अपराध कहता सुनकर उपजा क्षोभ यद्यपि शान्त हो चुका है पर उसका स्थान एक संशय ने ले लिया है । उसका स्पष्टीकरण ही आज किया जायेगा। _ तो क्या इन शुभ क्रियाओं को त्याग दें ? यदि यह बात है तो बड़ा ही अच्छा हुआ। आज तक भूलकर व्यर्थ ही समय गवाता रहा, दुकान का भी व्यर्थ ही हर्ज करता रहा। यह रहस्य खोलकर तथा मुझे जगाकर बड़ा उपकार किया आपने । आज से मन्दिर में न जाऊँगा। बेकार ही लोग धन बरबाद करते हैं मन्दिर आदि बनवाकर या प्रतिमा स्थापित करवाकर” इत्यादि अनेकों विकल्प उठ रहे होंगे आज आपके मन में।
नहीं भाई ऐसा नहीं है । सम्भल ! देख कहाँ जा रहा है तू ? तेरे इस प्रवाह को रोकने के लिये ही तो ज्ञानी-जनों ने ये क्रियायें तेरे लिये अच्छी बताई हैं । धन्य है उनकी करुणा, जिसमें ज्ञानी अथवा अज्ञानी सबको बराबर स्थान प्राप्त है। ज्ञानीजन मूर्ख नहीं थे कि तेरे ऊपर कोई व्यर्थ का साम्प्रदायिक भार लाद देते । उनके उपदेश में जन-कल्याण के अतिरिक्त कोई अन्य अभिप्राय नहीं होता। प्रभु ! विचार कर, अपने हित अहित को पहिचान, कुछ बुद्धि लगा, केवल दूसरों के संकेत पर मत चल । तुझे ज्ञानी बनने के लिये कहा जा रहा है, मूढ़ता त्यागने के लिए कहा जा रहा है । परन्तु हर बात का उल्टा ही अर्थ ले तो कहने वाले का क्या दोष ? उन क्रियाओं को करने के लिये कहा जाय तो 'मुझे सुख प्रदान करने वाली है' ऐसा मानकर उनको ही हितरूप समझ जाता है और अभिप्राय को बदलने के लिये कहा जाय तो उन क्रियाओं को
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