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१४. पुण्यास्त्रव
६. अभिप्राय का फेर
महिमा का बखान किया जाने पर कि वह भोग भोगते भी वैरागी है, तुझे यह शंका हुए बिना न रहेगी। अत: इस शंका के निवारणार्थ ही यहाँ यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता हूँ कि ‘ऐसा होना सम्भव है कि अभिप्राय कुछ और हो तथा क्रिया कुछ और ।' अभिप्राय में उसका निषेध वर्तते हुए भी बाह्य में वह क्रिया करता हुआ दीखता है । अन्तरंग में रस न लेते हुए भी बाहर में कुछ लेता हुआ सा प्रतीत होता है।
ले सुन ! आगम में भी इस बात का समाधान भरत-चक्री सम्बन्धी एक सुन्दर दृष्टान्त देकर किया गया है। यह प्रश्न किसी व्यक्ति के द्वारा किया जाने पर, एक तेल-भरा कटोरा उसके हाथ में दिया और आज्ञा दी कि सारे नगर में घूमकर आये, पर तेल की एक बूंद भी न गिरने पाये। गिरी तो तत्क्षण सर उड़ा दिया जायेगा। आज्ञाका पालन हुआ। लौट आने पर उस व्यक्ति से पूछा गया कि उसने नगर में क्या देखा । क्या बताता बेचारा? तेल और अपना सर या तलवार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं दिया था उसे, नगर में क्या देखता ? बस ज्ञानी को भोग भोगते समय कैस रस आवे? उसे तो दिखाई देता है केवल अपनी शान्ति का लक्ष्य या वर्तमान में उपलब्ध किञ्चित् शान्ति के वेदन में बाधा पड़ने की सम्भावना।
दूसरा आगम का दृष्टान्त है अर्जुन का । कौवे के नेत्र बींधने को धनुष बाण चढ़ाये अर्जुन खडा है । गुरु पूछते हैं कि क्या दिखाई देता है। जवाब मिला कि कौवे का एक नेत्र और वह भी उस समय जब कि वह पुतली में आता है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । वहाँ उस कौवे का इतना बड़ा शरीर विद्यमान होते हुए भी उसे दिखाई कैसे देता? उसके लक्ष्य में तो था केवल एक नेत्र । इसी प्रकार पुण्य क्रियाओं में ज्ञानी को मिठास क्यों आवे? उसे तो वर्तमान में या भविष्यत में दिखाई देती है केवल एक शान्ति । लक्ष्य लगा है केवल उसी पर । यह है लक्ष्यबिन्दु या अभिप्राय की महिमा।
इनके अतिरिक्त सुनिए एक लौकिक उदाहरण । कल्पना करो कि आप किसी मुकदमे में उलझ गए। अपनी रक्षा के लिए कुछ सामान व रूपया लेकर मैजिस्ट्रेट के घर गए और बड़े प्रेम से वह सामान घूस के रूप में भेंट किया। बोले बच्चों के लिए है। उसके बच्चों के प्रति प्रेम भी बहुत दिखाया। उन्हें खिलाता, बाजार ले जाता, जो कुछ उन्हें चाहता लाकर दे देता। बच्चों की माँ भी समझती कि उसे बड़ा मोह पड़ गया है बच्चों से और पिता भी समझता कि उसे प्रेम है हमारे कुटुम्ब से परन्तु आप जानो कि कैसा प्रेम है आपको? मुकदमा जीता कि सब प्रेम हवा में उड़ा । बस ज्ञानी को पता है कि कैसी रुचि है उसे इन धार्मिक क्रियाओं के प्रति । शान्ति मिली कि सब रुचि भागी। वर्तमान की यह झूठी रुचि दिखावटी है, अशभ बातों में विकल्प न चले जायें, केवल इस भय के कारण है। उससे विपरीत तेरी रुचि है, उन बच्चों के साथ माता के प्रेमवत् हित बुद्धि रखकर।
और भी उदाहरण है, जिससे सम्भवत: अभिप्राय की अत्यन्त सूक्ष्मता का स्पर्श किया जा सके । कल्पना कीजिए कि आपकी आयु ६० वर्ष की हो चुकी हैं, और सन्तान नहीं हुई। स्त्री ने बहुत इलाज कराए पर निराश रही। निराश होकर अपने भाई का कोई बच्चा रख लिया अपने पास। खूब प्रेम करते थे इस अभिप्राय से कि दो तीन वर्ष में परच जाएगा, तब गोद ले लेंगे। एक दिन गाँव जाते-जाते मार्ग में सौभाग्यवश वृक्ष के नीचे बैठे दिखाई दिए एक अवधिज्ञानी दिगम्बर साधु । भक्ति उमड़ी, नमस्कार किया और कह डाली अपने मन की व्यथा । उत्तर मिला कि जाओ एक वर्ष पश्चात् पुत्र होगा। सन्तोष हुआ तथा अतीव प्रसन्नता भी । घर आकर स्त्री से बताया। पर बेचारी बिल्कुल निराश हो चुकी थी, कैसे विश्वास करती ? ऊपर से हाँ हूँ कर दी, पर भीतर से यही आवाज आती रही कि अरे ! क्या रखा है बच्चा होने को ? स्वामी को तो साधु की भक्तिवश ऐसे ही विश्वास हो गया है, बच्चा होना असम्भव है।
अब भी उस दत्तक पुत्र पर दोनों का स्नेह बराबर था। परन्तु विचारिए कि स्त्री व आपके स्नेह में कुछ अन्तर पड़ा कि वैसा ही है ? यद्यपि स्त्री का स्नेह ज्यों का त्यों रहा पर आपके स्नेह में कुछ अन्तर पड़ गया है, क्योंकि विश्वास था कि दो तीन साल पीछे उस बालक को चले जाना होगा अपने घर । तीन महीने बीत गए। गर्भ के चिह्न दिखाई दिए । बताइए कि क्या कुछ अन्तर पड़ेगा उस दूसरी स्थिति के प्रेम में ? अवश्य पड़ेगा। आपका प्रेम पहले की अपेक्षा भी कुछ कम हो जाएगा और स्त्री के प्रेम में भी कुछ अन्तर पड़ जाएगा। अब चौथी स्थिति, बालक पैदा हो
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