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१४. पुण्यात्रव
६. अभिप्राय का फेर
इसलिये भोग-सम्पदा या देवादि पदों की इच्छा से की जाने वाली पुण्य रूप क्रियाओं के कारण भोगादिक प्राप्त हो जाने पर उनमें आसक्ति हुए बिना रह नहीं सकती, यह बात सर्व सम्मत है। बहुत प्रतीक्षा के पश्चात् मिली हुई स्त्री में क्या अत्यन्त आसक्तता होती नहीं देखी जाती ? और आसक्तता का फल क्या होना चाहिये, सो सब जानते हैं । देखिये अपनी भूल का विषैला फल । धार्मिक क्रियाओं को भोगाभिलाष के कारण अपने हितरूप मानकर उन क्रियाओं को करने में सन्तोष धारण किया, 'मैंने बहुत अच्छा काम किया है, मैं बहुत धर्मात्मा हूँ', ऐसा अभिमान उत्पन्न हुआ। यह वर्तमान भव में फल मिला। भोगों की तीव्र इच्छा के कारण सन्ताप उत्पन्न हुआ, यह दूसरे भव में फल पाया। तीसरे भव में उस आसक्ति के फलस्वरूप कुगतियों में अनेक दुःख सहे, यह मिला तीसरे भव में उन क्रियाओं का फल। फिर भी उन क्रियाओं को अत्यन्त हितरूप मानता है, खेद है इसकी इस भूल पर । इसी से ज्ञानीजन उनको अपराध कहते हैं।
५. ज्ञानी का पुण्य-उन क्रियाओं को अपराध बता देने से यह तेरे अन्दर में उत्पन्न हुआ क्षोभ ही यह बात दर्शाता है कि उनके प्रति तुझे मिठास वर्तता है। तर्क किया जा सकता है कि ज्ञानी को भी तो उन क्रियाओं में मिठास ही आता है ? नहीं वह क्रियायें करता अवश्य है पर उसे इनमें मिठास कभी नहीं आता । मिठास तो एक मात्र शान्ति में ही आता है और इसलिए उसको इनका निषेध सुनकर क्षोभ नहीं आता। स्वयं अन्तरंग से वह यही भावना किया करता है कि ये क्रियायें करने की आवश्यकता उसे न पड़े। फिर तेरी मिठास और उसकी मिठास में अन्तर भी तो महान् है। तेरी मिठास अपनी शान्ति से अपरिचित रहने के कारण केवल तेरे उन चार जाति के भोगाभिलाष सम्बन्धी अभिप्रायों में से निकल रही है, जिनके सम्बन्ध में कि कल बताया गया था, परन्तु उसकी मिठास पाँचवीं जाति के शान्ति-सम्बन्धी उस अभिप्राय में से निकल रही है, जिसमें केवल शान्ति की अपेक्षा है, अन्य किसी बात की नहीं। उन क्रियाओं में तुझे जो तन्मयतासी दीखती है, उसका आधार वे मधुर सुर, ताल, लय, मजीरे, ढोलक आदि हैं, जिनके द्वारा भक्ति करने को तू बहुत महत्ता देता है; परन्तु उसकी तन्मयता का आधार अपनी वह शान्ति है जोकि उसे उस समय भगवान की शान्ति को देखकर याद आ जाती है, और अपने अन्दर जिसका वह प्रत्यक्ष वेदन करने लगता है । तू इन क्रियाओं को करते हुए उन्हें हितरूप समझता है, और इन क्रियाओं सम्बन्धी अपने पुरुषार्थ को हित रूप समझता है, इनके प्रति अपने झुकाव को हित रूप समझता है; परन्तु वह इन क्रियाओं को करते हुए भी इन्हें हित रूप नहीं समझता, इन क्रियाओं की इच्छा को भी हितरूप नहीं समझता, इन क्रियाओं सम्बन्धी उपने पुरुषार्थ को भी हितरूप नहीं समझता, तथा उनके प्रति अन्तरंग में उसे कभी झुकाव भी उत्पन्न नहीं होता । उसका सच्चा झुकाव है तो केवल शान्ति के वेदन के लिये।
अभिप्रायों में महान् अन्तर होने से उनके फलों में भी महान् अन्तर पड़ जाता है। फल तो दोनों को ही यद्यपि भोग-सम्पदा मिलना है, तुझको कदाचित् जितनी मिल पाती है उससे भी हजारों गुना उसे मिल जाती है। परन्तु तू उस सम्पदा में उलझ जाता है, क्योंकि क्रियायें करते हुए उसी की अभिलाषा मन में बैठी हुई थी; और वह उसे प्राप्त करके भी उससे उदासीन बना रहता है तथा समय पड़ने पर उसे ठुकरा देता है; वह उसे जञ्जाल भासती है। देव गति को तू अच्छा समझता है और वह उसे तेंतीस सागर की कैद, क्योंकि यह मार्ग में न आती तो वह इतने समय पहले ही अपने प्रयोजन को सिद्ध कर चुका होता। तुझे तीसरे भव में उसका फल पाप में मिलता है और उसे सदा पुण्य ही पुण्य में।
और इसी कारण तेरी वे क्रियाये कही जाती हैं, पापानुबन्धी पुण्य, और उसकी वे ही क्रियायें कहलाती हैं पुण्यानुबन्धी पुण्य । देख बाहर में क्रियायें एक होते हुए भी केवल अभिप्रायों के फेरसे कितना महान् अन्तर पड़ गया है दोनों में। अपने अन्दर में झुककर ज़रा गौर से देख, वही या उसी जाति के कुछ और अभिप्राय बैठे हुये हैं या नहीं? शान्ति के प्रति का अभिप्राय तो तुझे हो नहीं सकता, क्योंकि तेरा हृदय स्वयं कह रहा है कि उसका वेदन तुझे अभी हो नहीं पाया है, वह अब भी उसके लिए तड़प रहा है। अत: भाई ! क्षोभ तजकर अन्तर के अभिप्राय को बदलने का कुछ प्रयत्न कर जिससे कदाचित् उन क्रियाओं की सार्थकता हो जाए और जैसा कि कहा जाता है, परम्परा-रूप से शान्ति-पथ में वे कुछ सहायक हो जायें। अभिप्राय बदले बिना ये परम्परा रूप से भी सहायक नहीं हो सकतीं।
६. अभिप्राय का फेर—यह सुनकर आश्चर्य कर रहा होगा कि भिन्न अभिप्राय रखते हुए भी कार्य कैसे हो सकता है ? ठीक है तेरा प्रश्न । आगे भी संयम आदि के प्रकरणों में तुझे यही शंका उत्पन्न होगी। ज्ञानी गृहस्थ की
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