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________________ १४. पुण्यात्रव ४. पुण्य में पाप ५. पांचवी इच्छा है सच्चे मोक्ष की इच्छा, जिसका रूप कुछ इस प्रकार का है—"मुझे केवल शान्ति चाहिए और कुछ नहीं। मुझे मोक्षशिला लेकर क्या करना है ? दूसरे सिद्धों से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? अत: मेरे हृदय में उस लोकशिखर वाले सिद्ध लोक के प्रति कोई आकर्षण नहीं । यह ठीक है कि वहाँ ही जाना होगा परन्तु इसकी कोई महत्ता नहीं। नरक लोक में जाकर भी यदि शान्ति रहती हो तो वह भी मेरे लिये मोक्ष है । और कहीं जाने की मुझे क्या आवश्यकता, मुझे तो यहाँ ही शान्ति बर्तती है, यही मेरी मोक्ष है, कुछ कमी है पूरी हो जायेगी। ये धार्मिक क्रियायें शान्ति की दृष्टि से कुछ प्रयोजनीय नहीं है । जो कुछ भी इनका फल बताया जाता हो पर मेरे लिये इनका कोई फल नहीं। जो इनका फल धनादि की प्राप्ति है वह मुझे चाहिये नहीं। वर्तमान में साक्षात् विकल्पात्मक होने से ये क्रियायें स्वयं अशान्तिरूप हैं। भले कुछ शान्तिरूप हों पर वह शान्ति नहीं जो निर्विकल्प समाधि में होती है। परन्तु फिर भी जब समाधि में स्थिर न रह सकू तब क्या करूं? अशान्ति में तो जाना ही होगा। कहीं भोगादिकों की ओर प्रवाह हो गया तो गजब हो जायेगा, सब कमाई लुट जायेगी। अत: 'सारा जाता देखिए तो आधा लीजिए बांट' इस उक्ति के अनुसार, चलो इन्हीं क्रियाओं में मन को उलझा दो।" इत्यादि प्रकार से इन क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है । यद्यपि यह प्रवृत्ति सच्ची है, यहाँ किसी भी रूप में भोगों की अभिलाषा की रेखा दिखाई नहीं देती, न ही बाह्य क्रियाओं से या वचन से कोई भी उस प्रकार का अभिप्राय प्रगट होने पाता है, तो भी 'मुझे किसी प्रकार शीघ्र शान्ति मिले', इतनी तो व्यग्रता है ही । बस इसीलिये अत्यन्त सूक्ष्म भी यह इच्छा ही तो है। अब सिद्धान्त लागू कीजिए। क्योंकि पाँचों में ही कोई न कोई इच्छा है, अत: सब धार्मिक क्रियायें अपराध हैं। इतनी विशेषता है कि नं०१ से नं० ४ तक की इच्छायें तो भोगाभिलाष सम्बन्धी होने के कारण अशुभ हैं, अनिष्ट है। इसलिए उन इच्छाओं-पूर्वक की गई वे क्रियायें बड़ा अपराध है । परन्तु नं० ५ की इच्छा अत्यन्त सूक्ष्म व भोगाभिलाष से निरपेक्ष होने के कारण तथा उस इच्छा का भी अन्तरंग में निषेध वर्तते रहने के कारण शुभ है तथा इष्ट है । उस सूक्ष्म इच्छा के साथ वर्तनेवाली क्रियायें शान्ति में इतनी बाधक नहीं पड़ेंगी, जितनी कि पहली चार । बल्कि साधक की, भोगाभिलाष में उलझने से रक्षा करने के कारण, कुछ सहायक ही रहेंगी अत: इस दशा में वे क्रियायें कथञ्चित् इष्ट हैं। परन्तु सिद्धान्त बाधित नहीं होना चाहिए। जितनी कुछ भी इच्छा है, इतना अपराध ही है। अत: यह पाँचवीं भी है अपराध ही, आस्रव ही। ४. पुण्य में पाप-अहो ! शान्त आत्माओं से मुझमें प्रतिबिम्बित होने वाली शान्त आभा जयवन्त रहो । वह शान्ति जिसने भवसंतप्त मुझ अधम को एक अपूर्व शीतलता प्रदान की, वह शीतल शान्ति जिसके सामने दाहोत्पादक ये पंचेन्द्रिय के भोग चितातल्य हैं. वह मधर शान्ति जिसके सामने भोगों के सब रस फीके हैं. देने वाली वह द्युतिवन्त शान्ति जिसके सामने भोगों की चमक फीकी है, वह महिमावन्त शान्ति जिसके सामने भोगों की महिमा तुच्छ है, वह मूल्यवान शान्ति जिसके सामने तीन लोक की विभूतिका भी कोई मूल्य नहीं । हे देवी ! अपना मुख दिखाया है तो अब छिपा न लेना, मैं तेरे लिये सर्वस्व न्योछावर कर देने को तैयार हूँ। तेरी ओर निहारकर अब मैं कभी इस सम्पदा की ओर आँख उठाकर न देखूगा। हे नाथ ! मुझको शक्ति प्रदान कीजिये कि इस आपदाजनक सम्पदा की ओर इस भव में तो क्या आगे किसी भव में भी मैं दृष्टि न उठाऊँ, सदा इसे ठुकराता चलूँ । शान्ति-रानी को पाकर कौन ऐसा है जो इस कुलटा का मुख देखेगा। और जब इस सम्पदा ही की ओर से दृष्टि हट गई तो फिर इसके कारणभूत पुण्य को मैं क्या समझू ? वह भी मेरे द्वारा अपमानित हुए बिना न रह सकेगा । मैं पाप के फल का स्वागत करने को तैयार हूँ पर पुण्य के फल का नहीं, वह पुण्य जो पाप से अधिक भयानक है। पाप तो ऊपर से ही भय दिला देता है, जिससे कि इसके प्रति स्वाभाविक घृणा उत्पन्न हो जाय। परन्तु पुण्य ऐसा लुभावना जाल फैलाता है कि स्वत: आकर प्राणी इसमें फंस जाते हैं, और तड़प-तड़पकर प्राण दे देते हैं। वह पुण्य तीसरे भव में नरक का द्वार दिखलाता है और वर्तमान भव में इच्छाओं की ज्वाला में घी डालता है। क्योंकि स्वाभाविक रीति से ही इच्छित पदार्थ की प्राप्ति हो जाने पर उसमें आसक्ति हुए बिना रह नहीं सकती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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