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________________ १४. पुण्यात्रव ३. इच्छा दर्शन अशुभ इच्छायें कहते हैं भोगाभिलाष को, जिनका कथन कि कल के प्रवचन में आ चुका है, और शुभ इच्छायें कहते हैं। भोगाभिलाष से निरपेक्ष देव पूजा या गुरुसेवा आदि उपरोक्त कार्य करने की इच्छा को । भोगाभिलाष के अभाव के कारण ही इन क्रियाओं को निष्काम-कर्म कहते हैं, जिसका कि गीता में कथन आया है। परन्त विचारिये कि क्या भोगाभिलाष का अभाव हो जाने के कारण उन क्रियाओं को निरभिलाष मान लें ? यदि इन धार्मिक क्रियाओं को भी करने की अभिलाषा न होती तो बताइये उन क्रियाओं में प्रवृत्ति ही कैसे होती ? मेरी हर शुभ या अशुभ क्रिया के पीछे किसी न किसी इच्छा की प्रेरणा अवश्य होती है। अब देखना यह है कि वे इच्छायें जो इस धर्म-क्षेत्र में मेरे अन्तरंग में उत्पन्न होकर मुझे वे क्रियायें करने की प्रेरणा दे रही हैं, कितने प्रकार की हैं। ये सब उपरोक्त क्रियायें अनेकों प्रकार की इच्छाओं व अभिप्रायों से प्रेरित होकर की जा रही हैं। विचारने से सब स्पष्ट हो जाती हैं। १. पहली इच्छा तो अत्यन्त स्थल भोगों की प्राप्ति के प्रति है। जिसके कारण कि उन क्रियाओं का रूप अन्तरंग में कुछ ऐसा सा होता है कि इन क्रियाओं को करने से मुझे धर्म होगा। धर्म का फल धन-धान्य की प्राप्ति, राज्य सम्पदा, सुन्दर स्त्रियें, आज्ञाकारी पुत्र तथा सेवक आदि ही तो हैं, इसलिये ये क्रियायें मुझे इष्ट हैं । अथवा प्रभु मुझपर प्रसन्न होकर मुझे उपरोक्त सम्पदा प्रदान कर देंगे, मुकदमा जिता देंगे, परीक्षा में सफल करा देंगे, शत्रु पर विजय करा देंगे इत्यादि । इस प्रकार की इच्छायें रखकर पूजा करना, छत्र चढ़ना, बोलत-कबूलत करना आदि अनेकों ऐसी स्थूल क्रियायें होती हैं जिनमें कि उनके अन्तरंग की इच्छायें स्पष्ट प्रकट हो जाती हैं। २. दूसरी इच्छा वह है जिसके आधार पर इस भव-सम्बन्धी भोगों का तो नहीं परन्तु अगले भवसम्बन्धी भोगों का अभिप्राय अन्तरंग में छिपा रहता है। उसका रूप कुछ इस ढंग का है-तिर्यञ्च व नरक गति तो बड़ी दुखदाई हैं, वहाँ तो धर्म-कर्म भी होना बड़ा कठिन है, किसी प्रकार देव गति मिले तो अच्छा, या भोग-भूमि मिले तो अच्छा । वहाँ सुख है, सर्व अनुकूल है, कोई चिंता नहीं है, जीवन सुखपूर्वक बीतेगा, इत्यादि । इस प्रयोजन की सिद्धि क्योंकि व्रत, उपवास, पूजा, प्रभावना, पात्रदान आदि के द्वारा बताई गई है, अत: ये क्रियायें मुझे इष्ट है ।" इस अभिप्राय-पूर्वक अधिकाधिक भक्ति, तप व दान आदि क्रियायें करता है । यद्यपि स्थूलत: बाहर में वह अभिप्राय पूर्ववत् प्रगट होने नहीं पाता, परन्तु बातबात में वह अवश्य प्रगट हो जाता है, इसलिये यह इच्छा भी स्थूल भोगों सम्बन्धी ही है। ३. तीसरी इच्छा वह है जिसके आधार पर स्वर्गादि सम्बन्धी न सही, पर मोक्ष सम्बन्धी अभिप्राय अन्दर में छिपा रहता है। परन्तु यहाँ मोक्ष का स्वरूप किसी अन्य प्रकार की कल्पनारूप रहता है। इसका रूप कुछ इस प्रकार का है-"देवगति के सुख को तो गुरुजन दुःख बताते हैं, अत: ठीक है, मुझे वह सब कुछ नहीं चाहिये, परन्तु मोक्ष के लिये तो स्वयं वे भी प्रयत्न कर ही रहे हैं। इन क्रियाओं का फल मोक्ष भी तो है ही। कहा जाता है कि मोक्ष में अनन्त सुख है, सर्व इन्द्रों के सुख से भी अनन्तगुणा । वाह वाह । इससे अच्छी बात क्या? वहाँ तो खूब मौज में रहूँगा। मोक्षशिला भी सुन्दर बताई जाती है, उस पर बैठने मात्र से ही बड़ा सुख मिलेगा। फिर अनन्तों सिद्ध वहाँ विराजमान हैं, उनको साक्षात् स्पर्श करने का अवसर मुझे मिलेगा। पवित्रात्माओं के स्पर्श से तथा उनके दर्शन से कितना सुख मिलेगा जबकि साधुओं तक के स्पर्श की व दर्शन की बड़ी महिमा गाई जाती है ? और कुछ न सही, लोक में ख्याति तो हो ही जायेगी कि बड़ा धर्मात्मा है । अत: मुझे इन धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करना इष्ट है।" यह अभिप्राय भी वचनों पर से जाना जा सकता है, जो कि स्थूल है। यद्यपि साधारणत: देखने पर भोगाभिलाष प्रतीत नहीं होती, परन्तु है यह भी भोगाभिलाष की कोटि में ही क्योंकि मोक्षसुख से अनभिज्ञ केवल शिलास्पर्श, सिद्धों का सम्पर्क और उनका स्पर्श भी इन्द्रियसुख ही है अतीन्द्रिय नहीं।। ४. चौथी इच्छा वह है जिसके अन्तर्गत विदेह-क्षेत्रों में जाकर सीमन्धर-प्रभु के दर्शन का अभिप्राय छिपा है। उसका रूप कुछ ऐसा है—“पुण्य करने से देव-गति में जाऊंगा और वहाँ से प्रभु के दर्शन को ।अथवा यहाँ से सीधा विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊंगा, प्रभु के दर्शन करके सम्यक्तव प्राप्त करूंगा, और फिर मोक्ष ।” परन्तु यहाँ पर भी मोक्ष का स्वरूप पहला ही रहा और सीमन्धर-प्रभु के दर्शन में भी उसी जाति के किसी सुख की कल्पना रही, या रही कोरी भावुकता । सो भी तीसरी इच्छा के समान ही है और यह वचनालाप से प्रगट हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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