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१४. पुण्यात्रव
३. इच्छा दर्शन कारण हैं। शान्त होकर सुन, तू स्वयं पछतायेगा अपनी इस भूलपर । बात कठिन नहीं है समझ में आ जायेगी। अब तक सुनी नहीं, इसलिये समझी नहीं। अब शान्तचित्त होकर सुन । मेरे कहने मात्र पर विश्वास न कर, तेरा अन्त:करण स्वयं 'हाँ' कर दे तो स्वीकार कर नहीं तो न कर । मेरी बात मेरे पास ही तो रहेगी, तुझसे कुछ छीन तो न लूँगा।
२. पुण्य भी पाप-कल बताई गई अशुभ क्रियाओं को तो दुनिया ही पाप बताती है, अपराध बताती है, परन्तु देखो वीतराग के मार्ग की अलौकिकता कि धार्मिक क्रियाओं को भी अपराध बताया जा रहा है, पाप कहा जा रहा है । पुण्य व पाप में अन्तर देखने वाला शान्ति का उपासक नहीं है, यह कहा जा रहा है । कुछ आश्चर्य की बात है । कितनी निर्भीकता है वीतरागी गुरुओं की बात में ? सर्व लोक एक ओर और वे अकेले एक ओर, बेधड़क धार्मिक क्रियाओं को पाप बताने वाले । यहाँ तक कह दिया है ज्ञानीजनों ने कि भगवन् ! मुझे सब कुछ हो, बड़े से बड़ी बाधा भी स्वीकार है, पर पुण्य कभी न हो। अरे ! कैसी अजीब बात है यह कि जिस पुण्य को, जिस धर्म को सब चाहते हैं उसे ज्ञानी इन्कार करते हैं। याद होगी आगरे के विरागी गृहस्थ श्री बनारसी दास जी के जीवन की वह घटना जब उन्होंने बादशाह अकबर से यह माँगा था कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपया आज के पीछे मुझे अपने दरबार में न बुलाना । और आश्चर्य में पड़ गया था सारा दरबार उस समय । क्या माँगा इसने? पागल हो गया है शायद ? जिसकी नज़र के लिये आज सारा देश तरसता है, वह व्यक्ति उसके पास बुलाने पर भी आना नहीं चाहता । बस ऐसी ही अटपटी बात है ज्ञानियों की । सामान्य मनुष्य को यह रहस्य समझ में नहीं आ सकता और वही हालत है आपकी। परन्तु घबराइये नहीं, गुरुदेव की शरण में आये हो, अज्ञानी न रहोगे, इस रहस्य को अवश्य समझ लोगे।
विषय समझने से पहले यह बात अवश्य हृदयंगत कर लीजिये कि सिद्धान्त वही होता है जो सर्वत्र समान रीति से लागू हो। कहीं लागू हो जाय और कहीं नहीं, उसे सिद्धान्त नहीं कहते, वह कल्पना है, पक्षपात् है। वैज्ञानिक मार्ग में पक्षपात् को अवकाश नहीं, भले ही पहले की पोषी सर्व धारणाओं का त्याग क्यों न करना पड़े। 'सत्य' सत्य ही रहेगा। आपकी कल्पनाओं के अनुकूल हो तो सत्य, नहीं तो असत्य, ऐसा सत्य का लक्षण नहीं है। कोई भी स्वीकार न करे तो भी 'सत्य' तो सत्य है । आपकी कल्पनाओं के कारण सत्य न बदलेगा, सत्यके कारण आपको ही धारणायें बदलनी होंगी। यह तो विचारिये कि यदि आपकी धारणायें व क्रियायें सच्ची होती तो आज दुःखी क्यों होते ? अधिक नहीं तो कुछ न कुछ शान्ति तो अवश्य होती और प्रारम्भ से ही तो यह बताया जा रहा है कि वास्तविक सिद्धान्त व रहस्य से अपरिचित तेरी सब धारणायें भूल के आधार पर टिकी हुई हैं। वहाँ तो सुनकर क्षोभ नहीं आया था, यहाँ क्यों आ गया? प्रतीत होता है कि अन्य धारणाओं की अपेक्षा इस धारणा की शक्ति सबसे प्रबल है, इसकी पकड़ बहुत मजबूत है । इसलिये ही सर्व शक्ति लगाकर इसे हटाने का प्रयत्न किया जा रहा है । यह बात तेरे हित के लिये है, अहित के लिये नहीं।
३. इच्छा दर्शन-देखिये पहले तो यह याद कीजिये कि आप क्या प्रयोजन लेकर निकले हैं ? 'शान्ति' । अच्छा तो अब बताइये कि शान्ति का क्या लक्षण आपने स्वीकार किया है ? 'निरभिलाषता या निर्विकल्पता।' ठीक । अब यह बताइये कि आप अभिलाषायें चाहते हो या उनका निरोध? 'उनका निरोध'। शाबाश. शान्ति के उपासक के मुँह से इसके अतिरिक्त और निकल भी क्या सकता है? सिद्धान्त को तो आप खूब समझे हुये हो, परन्तु फिर भी उपरोक्त बाधा क्यों ? खैर धीरे-धीरे दूर हो जाएगी। अब यह बताइये कि यदि कुछ इच्छाओं को निकालकर कुछ इच्छायें बाकी छोड़ दी जायें तो ? 'किसी भी जाति की एक भी इच्छा नहीं रहनी चाहिये।' वाह, कितना सुन्दर उत्तर है। अनेकों पीड़ायें पहुँचाकर जब थक गये तो अंग्रेजोंने भी यही प्रश्न पूछा था गान्धी से कि कुछ स्वतन्त्रता तो ले लो और कुछ हमारे हाथ में रहने दो । उस समय गान्धी ने भी यही उत्तर दिया था जो आज आपने दिया है । “चाहे आप स्वर्ण के भी बनकर आयें, चाहे मुझे सब कुछ देने को तैयार हो जायें पर मुझसे यह आशा न करना कि मैं परमाणु मात्र भी अधिकार तुम्हारे हाथ में रहने दूं। मुझे पूर्ण स्वतन्त्रता चाहिये, और पूर्ण ही लूँगा, रत्ती भर कम नहीं।” अच्छा निर्णय हो चका कि सब इच्छाओं का अभाव करना ही आपका प्रयोजन है । अब याद रखना इसे, आगे
आ जाइये अब मूल विषय पर । विचारिये कि उपरोक्त धार्मिक क्रियायें इच्छा के बिना की जाती हैं या इच्छा सहित ? देखिये हमारी आज की कोई क्रिया भी चाहे पुण्य रूप हो या पापरूप, चाहे धर्मरूप हो कि अधर्मरूप, बिना इच्छा के नहीं हो रही है । यह बात अलग है कि इच्छायें कई जाति की होती हैं, अशुभ भी होती हैं, और शुभ भी।
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