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________________ १४. पुण्यात्रव १. पुण्य भी अपराध; २. पुण्य भी पाप; ३. इच्छा दर्शन; ४. पुण्य में पाप; ५. ज्ञानी का पुण्य; ६. अभिप्राय का फेर;७. पुण्य समन्वय; ८. मनोविज्ञान; ९. चतुर्विध क्रिया। १. पुण्य भी अपराध-शान्ति के घातक तथा इच्छा-ज्वाला में नित्य मुझे भस्म करने वाले आस्रव की बात चलती है । इसके दो अंगों में से अशुभ आस्रव अर्थात् अशुभ अपराध की बात हो चुकी। अब चलेगी शुभ अपराध की बात । इस प्रकरण को प्रारम्भ करने से पहले यह बात यहाँ बता देनी आवश्यक है कि इस प्रकरण में धर्म-कर्म सम्बन्धी पुण्य रूप क्रियाओं का निषेध करने में आयेगा। उसका अभिप्राय ठीक-ठीक ग्रहण कर पर महान अनर्थ हो जायेगा। पण्य क्रियाओं के निषेध का यह अर्थ नहीं है कि उन्हें छोडकर लौकिक पाप-कार्यों में प्रवृत्ति करने लगे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि यद्यपि साधक दशा में अशुभ राग को छोड़ने के लिये शुभ राग का आश्रय कथंचित् इष्ट है, पर शुभ राग से भी धीरे-धीरे हटते हुए अधिकाधिक स्वरूप-निमग्न होने का प्रयत्न कर, यहाँ तक कि अन्त में जाकर इनको सर्वथा तजकर ध्यानस्थ हो जा। इनकी अनिष्टता दिखाने का यही प्रयोजन है कि कहीं इनको ही जीवन का सार मानकर तू इन ही में उलझकर न रह जाए, अर्थात् पुण्य में रस लेने न लग जाए। क्योंकि ऐसा होने पर तेरा पतन अवश्यम्भावी है। वर्तमान की अल्प स्थिति में हेय बुद्धि पूर्वक, अपने प्रयोजन की किञ्चित् सिद्धि करने के लिये इन शुभ धार्मिक क्रियाओं का आश्रय लेना आवश्यक है, यह बात आगे के प्रकरण में स्पष्ट बताई जायेगी। कल के प्रकरण में बताई गई ही वे मन-वचन-काय की क्रियायें हों, ऐसा नहीं है। धर्म-कर्म के सम्बन्ध में भी उनकी क्रियायें चला करती हैं। उन क्रियाओं का आधार भी किसी विशेष जाति की इच्छायें ही हैं और इच्छा मूलक होने के कारण इन क्रियाओं का समावेश भी आस्रव या अपराध के प्रकरण में किया जा रहा है, क्योंकि इच्छा व्याकुलता की जननी है और व्याकुलता सर्व ही अपराध रूप है। धर्म-कर्म सम्बन्धी वे क्रियायें मन के द्वारा, वचन के द्वारा या काय के द्वारा, सच्चे देव की पूजा व भक्ति के रूप में, अथवा शान्त-मूर्ति वीतरागी गुरु की उपासना के रूप में अथवा शान्तिपथ-प्रदर्शक प्रवचन के अध्ययन मनन के रूप में, अहिंसा, सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य व परिग्रह-त्याग आदि व्रतों के रूप में प्राणियों पर दया के रूप में धर्मोपदेश के रूप में, परोपकार के रूप में, देश-सेवा के रूप में, साधर्मी जनों पर प्रेम के रूप में, तप-जप शील-संयमादि के रूप में, इत्यादि अनेकों रूपों में, मैं नित्य ही किया करता हूँ। इन सब क्रियाओं का वर्णन आगे क्रम से किया जाने वाला है। यहाँ केवल इतना मात्र दर्शाना इष्ट है कि ये सर्व क्रियायें आस्रव हैं, अपराध हैं। ओह ! क्या कहा जा रहा है ? मानो बाण ही फेंके जा रहे हैं । कलेजा छलनी हुआ जाता है ये वचन सुनकर । धार्मिक क्रियायें और अपराध ? निकाल दो इस वक्ता को बाहर, कौन से देश की बात सुनाने आया है, नास्तिक कहीं का। बस-बस बन्द करो यह वचनालाप, ऐसी बात सुनने को हम तैयार नहीं । जप, तप, शील, संयम, पूजा, दान, भक्ति, सेवा सब अपराध ? अरे रे ! कितना कठोर है तेरा हृदय ? प्राणियों की रक्षा करना और अपराध ? हम से नहीं तो ईश्वर से तो डर । और इस प्रकार की अनेकों बातों का मानो तूफान ही उठ गया हो, आप सबके हृदय में । ऐसी बात कभी न सुनी, न देखी। एक अनोखी बात । इतनी कठिनाई उठा-उठाकर जिन क्रियाओं को बड़े-बड़े योगीश्वरों ने किया, आज उन्हें अपराध बताया जा रहा है । यह कोई नई जाति का धर्म चलाना चाहता है, सबको ही नास्तिक बनाना चाहता है। शान्त हो प्रभु ! शान्त हो ! यह नास्तिक बनाने की बात नहीं है, शान्ति दिलाने की बात है । तेरा कोई दोष नहीं, वास्तव में कभी इतनी निर्भीकता से ऐसी बात का न सुनना ही तेरे इस क्षोभ का कारण है । 'मन-वचन व काय की ये क्रियायें अत्यन्त हितरूप हैं, धर्मरूप हैं, मोक्ष देने वाली हैं, इस प्रकार की तेरी पुरानी धारणायें ही तेरे इस क्षोभ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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