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१३. आस्त्रव-तत्त्व
५.क्रिया की अनिष्टता
प्राप्ति व अप्राप्ति सम्बन्धी कल्पनायें करने के लिये, उपाय सोचने के लिये बाध्य करते हैं । वचन द्वारा किसी को प्रेमपूर्ण वाक्य कहने के लिये और किसी को गाली आदि देने के लिये मजबूर करते हैं । शरीर द्वारा इधर दौड़ उधर दौड़, इधर आ उधर जा, ऊपर चढ़ नीचे उतर, हाथ उठा हाथ घुमा, झुकने या सीधे खड़े रहने, बैठने या लेटने आदि-रूप कार्य करने की प्रेरणा देते हैं । उन-उन विषयों की प्राप्ति हो जाने पर ही ये कार्य होते तो भी खैर थी, परन्तु उनकी निकट सम्भावना न होने पर भी शेखचिल्ली की भाँति ये क्रियायें बराबर चला करती हैं। कोई एक ही क्रिया बहुत देर तक चलती रहती हो, सो भी नहीं, प्रतिक्षण बदलती रहती है । अगले-अगले क्षणों में पहले से अपूर्व ही कोई नई क्रिया हुआ करती है।
५.क्रिया की अनिष्टता-प्रभो ! सोचा है कभी इस सम्बन्ध में कि यह क्या है ? यही तो है वह अपराध जिसे विकल्प नाम से कहा जाता है । आगे-आगे के प्रकरणों में आने वाले 'इन्द्रिय विषय' 'रागद्वेष' 'विकल्प' आदि शब्दों का यही तो तात्पर्य है । क्या इन क्रियाओं को करते हुए प्रतिक्षण व्याकुलता सी नहीं भासती है ? क्या बराबर होती रहने वाली इन क्रियाओं से तू कुछ थका-थका सा नहीं महसूस करता है ? साक्षात् व्याकुलतारूप इन क्रियाओं में फिर भी तू बड़ी लगन से प्रवृत्ति करता है, महान आश्चर्य है । वास्तव में तूने आजतक विचारकर देखा ही नहीं कि ये क्रियायें सुख रूप हैं कि दुःख रूप । विचारता भी कैसे, इन दो महा सुभट 'राग' व द्वेष' की असीम इच्छा-सेना से कौन भयभीत नहीं हो जाता? इन इच्छाओं से संतप्त ही तू आज तक बिना विचारे, किये जा रहा है यह कार्य, प्रतिक्षण नया-नया अपराध । यदि एक क्षण को भी इधर ध्यान दे तो सदा के लिये इससे मुक्ति मिल जाये, इन विकल्पों से छुट्टी मिल जाए। फिर ये कार्य करने की आवश्यकता ही न पड़े । इसलिये वास्तव में इच्छायें करना ही वह अपराध है, जिसके प्रति कि संकेत करना इष्ट है।
स्व व पर में भेद-ज्ञान न होने या झूठा भेद-ज्ञान होने के कारण ही इन पूर्व कथित पदार्थों का आश्रय वर्तता है, जिनकी महिमा से अपरिचित रहने के कारण इस शरीर या भोग-सामग्री आदि पर पदार्थों की महिमा तेरी दृष्टि में आती है। यदि यह समझ लेता कि इन पदार्थों से तेरा कोई कार्य सिद्ध होने वाला नहीं है, क्योंकि ये पर पदार्थ हैं, षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र हैं, तो इन क्रियाओं को अवकाश न रहता। यदि यह समझ लेता कि ये षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र पर पदार्थ तेरे आधीन नहीं हैं, तो इनकी प्राप्ति व विनाश की इच्छा तुझमें जागृत न होती। यदि यह समझ लेता कि ये षट्कारकी रूप से स्वयं अपना सर्वकार्य करने को समर्थ हैं, तो तुझे अन्य की सहायता करने की आवश्यकता न पड़ती। यदि यह समझ लेता कि षटकारकी रूप से स्वतन्त्र तू स्वयं शान्ति का भण्डार है तो इन वस्तुओं में अपनी शान्ति की खोज करने की भूल कभी न करता । यदि यह समझ लेता कि षटकारकी रूप से स्वतन्त्र तू इनके आधीन नहीं है तो कदापि इनका आश्रय लेने का प्रयत्न न करता । स्वतन्त्र रूप से, अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में से, अपने ही स्वभाव के आधार पर प्रयत्न करता शान्ति प्राप्ति के लिये, और शीघ्र ही सफल हो जाता। विकल्प मिट जाते, सर्व इच्छाओं का लोप हो जाता और ये सुभट राग व द्वेष अपना रास्ता नापते दिखाई देते।
भाई ! जरा तो बुद्धि से काम ले । इच्छाओं की ज्वाला में घी डालने वाली ये तेरी मानसिक, वाचिक व शारीरिक क्रियायें तेरे लिये हितकारी हैं कि अहितकारी, सुख रूप हैं कि दुःख रूप ? इच्छाओं का दास बनकर अपनी प्रभुता को भूल गया, इस भूल की महिमा गिनता है, इससे आकर्षित होता है, अपनी शान्ति की बराबर अवहेलना किये जा रहा है, अपमान किये जा रहा है, भोगों का रूप धारण किये इन इच्छाओं रूपी वेश्याओं को घर में वास दिये जा रहा है। पर धन्य है वह पतिभक्ता शान्ति रानी, जो अनादि काल से अपमानित होते हुए भी आज तक तेरे घर में बैठी है । अब भी उसकी ओर देख । सुन ! कितनी मधुरता से यह तुझे अपनी ओर बुला रही है । “स्वामिन् ! आइये, एक बार केवल एक बार मेरे मुख पर दृष्टि डाल लीजिये, फिर भले चले जाना उधर ही । मैं अपको रोकूँगी नहीं। इतना ही खेद है कि जब से आये हो एकबार भी तो आँख उठा कर मेरी ओर नहीं देखा।" भाई ! ठीक तो कहती है, एक बार देखने में क्या हर्ज है ? नहीं अच्छी लगेगी तो छोड देना।
यदि निर्विकल्प इस शान्ति के दर्शन करे तो विकल्पात्मक इस मन-वचन-काय सम्बन्धी क्रिया को अपराध स्वीकार किये बिना न रहे और तेरा जीवन बदल जाए । जो जब इच्छाओं की ज्वाला में स्वाहा होने जा रहा है, वही फिर शान्ति-सुधा के निर्मल सरोवर में स्नान करने लगे।
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