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________________ ७८ १३. आस्त्रव-तत्व ४. रागद्वेष पर यह जड़ात्मक नहीं है, चेतनात्मक है, मेरी ही कोई अवस्था-विशेष है। क्योंकि व्याकुलता स्वरूप है इसलिये शान्ति के प्रति कर्त्तव्य नहीं है, अपराध है। यह अपराध भी दो प्रकार का है, शुभ और अशुभ । शुभ है पुण्य और अशुभ है पाप । पहले अशुभ अर्थात् पाप की बात चलनी है। 'आस्रव' जो सर्व ओर से प्रतिक्षण मुझमें प्रवेश पा रहा है, अर्थात् वह अपराध जो प्रतिक्षण मैं किये जा रहा हूँ, इस बात से बिल्कुल बेखबर कि इससे मुझे शान्ति मिलेगी कि अशान्ति । जैसा कि साक्षात् अनुभव में आ रहा है, मैं प्रतिसमय कोई न कोई नई-नई क्रिया मन से, वचन से व काय से किया करता हूँ । यदि विचार करके देखू तो उन सब क्रियाओं का मूल अन्तरंग में उठने वाले वे विकल्प हैं, जो इन्द्रिय-भोगों से कुछ न कुछ सम्बन्ध रखते हैं तथा उन भोगों के प्रति शृङ्खलाबद्ध इच्छाओं में से उत्पन्न होते हैं। मन में उठे हुए ये विकल्प ही इस शरीर को तथा जिह्वा को प्रेरित करके कोई न कोई शारीरिक या वाचिक क्रिया करने को बाध्य करते हैं। यदि मन में ये विकल्प न आयें तो शरीर व वचन से वैसी क्रियायें न हों। मन-वचन-काय की ये सब भोग-विषयक क्रियायें इच्छाओं के आधीन हैं तथा परम्परा रूप से इच्छा की उत्तेजक होने के कारण शान्ति की घातक हैं, स्वयं व्याकुलतारूप हैं। अत: शान्ति-पथगामी मेरे लिये सब अपराध-स्वरूप हैं, पाप हैं । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह ये पाँचों पाप इसी के अन्तर्गत हैं। ४. रागद्वेष-शरीर की चमड़ी को सुन्दर देखकर, इसे हृष्ट-पुष्ट देखकर, इसे सुन्दर वस्त्रालंकार देखकर, इसको चिकना-चुपड़ा देखकर न मालूम क्यों मुझे एक प्रकार का आनन्द सा आता है । रसीले व मिष्ट पदार्थों को खाते, सुगन्धित व स्वादिष्ट पदार्थों का भक्षण करते न मालूम क्यों मुझे एक प्रकार का आनन्द सा आता है । अकस्मात् ही किसी पुष्प की या किसी मिष्टान्न की या इतर-तेल आदि की सुगन्धि नाक में पड़ते ही न मालूम क्यों अपने को मैं उस ओर कुछ खिंचा खिंचा सा अनुभव करने लगता हूँ। बाजार में कोई सुन्दर चीज या मूर्ति देखकर, या हलवाई की दुकान में सजी हुई मिठाई देखकर, कोई सुन्दर रेडियो, ग्रामोफोन आदि देखकर, सिनेमा के चलचित्र पर कुछ चलते फिरते चित्र देखकर, या थियेटर-सर्क सके कछ सीन देखकर.या नत्य देखकर या किसी सन्दर स्त्री का मख देखकर. या अपने किसी परम मित्र को देखकर, न मालूम मन में कहाँ से उथल-पुथल मचाता यह एक आकर्षणसा आ घुसता है कि किसी प्रकार मैं ये पदार्थ प्राप्त कर पाऊँ तो कितना अच्छा हो? कहीं से आती हुई मीठे राग की ध्वनि तथा मेरी प्रशंसा के शब्द न जाने क्यों मेरे कान खड़े कर देते हैं, और मुझे सब काम छोड़कर अपनी ओर ही ध्यान देने तथा कुछ अभिमान करने को बाध्य कर देते हैं ? अन्य भी अनेकों प्रकार के ये पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी विषय मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनमें मुझे कुछ आनन्द सा भासता है । साक्षात् उनकी प्राप्ति तो दूर, उनकी कल्पना मात्र से ही अन्तरंग में कुछ मिठाससा वर्तता है । विषयों के प्रति इस प्रकार के आर्कषण का नाम 'राग' है और इस जाति के ये विषय 'इष्ट-विषय' कहे जाते हैं। अधिक गरमी में या धूप में चलते हुए, या सर्दी में काम करते हुए, मैले या खुरदरे वस्त्र शरीर पर धारण करते हुए, शरीर पर मैल जमी जानते हुए, इस पर किसी प्रकार चोट आदि खाते हुए अथवा इस पर मच्छर आदि के काटने पर न मालूम क्यों कुछ पीड़ासी, कुछ हटावसा, कुछ बुरा सा प्रतीत होने लगता है ? कोई भी कड़वा या कसैला या रूखा पदार्थ खाते हुए, या स्वत: ही मुँह में से या किसी कुष्टी के शरीर में से या कहीं अन्यत्र से किसी प्रकार की दुर्गन्ध नाक में आ जाने पर, न जाने क्यों मुँह फेरने को या शीघ्र से शीघ्र वहाँ से हट जाने को जी चाहता है ? किसी कुरूप से कुष्टी को देखकर, या किसी भी मैले-कचैले व्यक्ति को देखकर, या विष्टा को देखकर, अपने किसी शत्रु को देखकर अथवा किसी रोगी को देखकर न जाने कहाँ से कुछ घृणा सी, कुछ भय सा उत्पन्न होने लग जाता है ? गाली का या व्यंग का कोई वचन सनकर या अपनी निन्दा का वचन सुनकर या वैसे ही कोई कर्कश सा शब्द सुनकर न जाने क्यों कुछ बुरासा लगने लगता है, क्यों क्रोध सा आने लगता है ? तथा अन्य भी अनेकों प्रकार के ये पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी विषय मुझमें कुछ अदेखस का-सा, कुछ हटाव का-सा, कुछ क्रोध का-सा, कुछ बुरा सा भाव उत्पन्न कर देते हैं। उनमें कुछ मुझे हटावसा वर्तता है । साक्षात् उनकी प्राप्ति तो दूर, उनकी कल्पना मात्र से अन्तरंग में कुछ हलचल-सी मच जाती है । विषयों के प्रति इस प्रकार के अदेखसके भाव का नाम 'द्वेष' है और इस जाति के ये विषय अनिष्ट विषय' कहे जाते हैं। इष्ट विषयों की प्राप्ति में राग तथा उनकी अप्राप्ति या विनाश में द्वेष होता है । और इसके विपरीत अनिष्ट विषयों की प्राप्ति में द्वेष तथा अप्राप्ति व विनाश में राग वर्तता है । बस यह राग द्वेष ही मझे प्रतिक्षण मन द्वारा इनकी यथायोग्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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