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१३. आस्रव-तत्त्व
३. द्विविध अपराध
क्या इस प्रकार तुझे शान्ति मिलनी सम्भव है ? यह शरीर तो सदा से है और सदा रहता रहेगा, तुझसे अपराध कराता रहेगा । स्वभावत: ही उस तेरे अपराध से उसमें और वृद्धि होती रहेगी, इस प्रकार न कभी उसका विनाश होगा न तेरे अपराध का । तू सदा बन्दी बना खाता ही रहेगा ठोकरें, इस व्याकुलतामय जगत की । प्रभो ! अब विपरीत बुद्धि को छोड़, तुझे आज प्रकाश मिल रहा है, कुछ देख, अपने अपराध को स्वीकार कर और इसे तोड़ने का प्रयत्न कर। इस पर तेरा बस चल सकता है, उस बेचारे जड़ शरीर को अपने अपराध के कारण क्यों कोसता है ।
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प्रकाश को पीटने से प्रकाश का अभाव नहीं हो जाता, दीपक बुझाने से ही होगा। गोली का उठाकर छेतने से गोली लगने का भय नहीं जाता, उसके लिये व्याध (शिकारी) पर आघात करना होता है, जैसाकि सिंह करता है । परन्तु श्वान उससे उल्टा व्याधपर न झपटकर गोली पर झपटता है, तथां मारने वाले पर न झपटकर लाठी पर झपटता है। भला विचारो तो, लाठी बेचारी का क्या दोष ? व्यक्ति उठाकर लाया तो वह आई, उसे घुमाया तो वह घूम गई । उसी प्रकार इस बेचारे जड़ शरीर का क्या दोष ? तूने अपराध करके उसे बुलाया तो आकर बैठ गया । अपराध करने में ही रस मान- मानकर तू उसे घुमाता है तो घूम जाता है, अर्थात् उदय में आ जाता है। वह बेचारा तो तेरा दास है, जैसी तुझसे आज्ञा पाता है वैसा करता है। वेतन न दे तो स्वयं भाग जायेगा। नया-नया अपराध करके आनन्द मानना ही उसको वेतन देना है । प्रभु जाग ! देख तू सिंह की सन्तान है, श्वान की नहीं, लाठी को मत पकड़, उस बेचारे को मत कोस, मूल पर आघात कर, अपने अपराध को देख और उसको स्वीकार कर ।
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भगवन् ! तू स्वतन्त्र है। स्वपर- भेदविज्ञान किया है, फिर भी अपने को इस बेचारे जड़ कार्मण शरीर के आधीन क्यों मानता है ? 'जो यह करायेगा वही तुझे करना पड़ेगा', अर्थात् तुझमें अपना तो कुछ बल है ही नहीं । कोई कह रहा है कि ईश्वर जैसा करायेगा वैसा करना पड़ेगा और तू कह रहा है कि कर्म जैसा करायेगा वैसा करना पड़ेगा; बात तो एक ही रही, केवल नाम का भेद रहा। उसका ईश्वर आकाश में बैठा कोई काल्पनिक व्यक्ति है, और तेरा ईश्वर कर्म । अनादि से परतन्त्र दृष्टि बनी रही, व्याकुलता का निशाना बनता रहा, आज सौभाग्य से गुरुदेव का उपदेश प्राप्त हुआ । यहाँ भी पुरानी टेव न छोड़ी। उसी परतन्त्रता का पोषण किया। कुत्ते की दुम को बारह वर्ष नलकी में रखा पर जब निकली टेढ़ी ही निकली। अपनी स्वतन्त्र शक्ति को अब तक नहीं पहिचाना, गुरुदेव के बताने पर भी विश्वास नहीं करता । कैसे होगा कल्याण ?
क्या कहा ? गुरुदेवपर व उनकी वाणी पर तो पूरा विश्वास है ? पर बात तो वास्तव में ठीक नहीं जँचती । केवल कहने मात्र का विश्वास हो तो हो, पर सच्चा विश्वास तो है नहीं । विश्वास वह होता है जिसका प्रतिबिम्ब जीवन में दिखाई दे । जीवन में तो अविश्वास ही दिखाई दे रहा है। 'आपकी बात स्वीकार है, पर करूँगा तो वही जो करना है' कुछ ऐसी बात है । फिर बता कैसे कहें कि विश्वास है ? क्या भेद विज्ञान इसी का नाम है कि 'शरीर जुदा मैं जुदा ' इतना कहा और हो गया ? यदि पूर्वकथित रूप से गुरुदेव के समझाने पर शरीर में और अपने में षट्कारकी भेद का निश्चय किया है, तो बता तू कैसे कह सकता है कि कर्म तेरा काम कर सकेंगे ? भाई ! अपना अपराध करने वाला तू स्वयं है, स्वतन्त्र रहकर करता है, अपने द्वारा करता है। कर्म बेचारे का क्या दोष ?
यदि तेरे-निकट पड़ा भी है तो पड़ा रहने दे, क्या माँगता है तेरा ? वह अपना काम करता रहे और तू अपना वह तुझे काम करने से तो रोकता नहीं। जिधर चाहे जा, जिस प्रकार चाहे विचार कर, चाहे तो इन अपराधों में रस ले, चाहे तो न ले । ये बेचारे जड़ तुझे क्या कहते हैं ? अब गुरुदेव की शरण में आया है । स्व-परका स्वरूप निश्चय किया है तो बस पर को पर समझ, उस पर से लक्ष्य हटा और 'स्व' पर लक्ष्य कर । गुण या दोष जो कुछ भी देखना है स्व में देख, स्व में ही पुरुषार्थ कर, तभी कल्याण सम्भव है। कर्मों से भिक्षा माँगकर भिखारी बना हुआ क्यों अपने कुल को कलंक लगाता है ? आ तुझे समझायें, वह तेरा अपराध क्या है, जो क्षण प्रति क्षण बराबर तेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है।
३. द्विविध अपराध — शान्ति के घातक तथा व्याकुलता के कारणभूत आस्रव का कथन चलता है। जड़ आस्रव अर्थात् कर्मास्रव की बात हो चुकी । अब मुख्य आस्रव की बात चलेगी जो प्रत्यक्ष रूप से शान्ति का घातक ही नहीं बल्कि स्वयं व्याकुलता स्वरूप है, जो अपने अनुभव में आता है, जो स्वयं मेरा ही कोई दुष्कृत है, जिसको स्वतन्त्र रूप मैं कर रहा हूँ, और इसलिए यदि चाहूँ तो स्वतन्त्र रूप से रोक भी सकता हूँ। यह आस्रव भी यद्यपि कर्म कहलाता है।
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