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________________ १३. आस्त्रव-तत्त्व ( १. पारमार्थिक अपराध; २. कार्मण शरीर; ३. द्विविध अपराध; ४. रागद्वेष; ५. क्रिया की अनिष्टता। १. पारमार्थिक अपराध-अहो ! अपराधों से अतीत वीतरागी गुरु, आपका उपकार करुणा व नि:स्वार्थता । निपट अन्धे को आँखे प्रदान करके इसे अपराधों के प्रत्यक्ष दर्शन करा देने वाले है गरुवर ! इसके अपराधों को अब शान्त करो। शान्ति-पथ के पथिक को स्वपर-भेद करा चुकने के पश्चात्, अब यह बात चलती है कि कौन सा ऐसा अपराध है जिसका कि दण्ड उसे इस व्याकुलता के रूप में मिल रहा है । गुरुदेव के द्वारा प्रदान की गई दिव्य चक्षु से आज मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है वास्तव में मेरा सारा जीवन ही अपराध है। चौबीस घण्टे में करता ही क्या हूँ, अपराध के अतिरिक्त ? यहाँ अपराध से तात्पर्य राजदण्ड्य लौकिक अपराध न ले लेना, बल्कि वह पारमार्थिक अपराध लेना जिसके कारण कि व्याकुलता का दण्ड उठाना पड़े। कौन देने वाला है वह दण्ड ? कोई दूसरा नहीं, मैं स्वयं ही हूँ, क्योंकि जो अपराध में करता हूँ वह स्वयं व्याकुलता रूप ही है । इसी अपराध को आगमकारों ने 'आस्रव' नाम से कहा है। २. कार्मण शरीर-आस्रव अर्थात् आ+ स्रव। 'आ' का अर्थ चारों ओर से और 'सव' का अर्थ स्रवना, रिसना या धीरे-धीरे प्रवेश करना । अर्थात् जो धीरे-धीरे प्रवेश कर रहे हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। दो वस्तुएँ हैं जो इस प्रकार प्रवेश कर रही हैं—एक तो मेरा अपना चैतन्यात्मक अपराध और दूसरा वह जड़ पदार्थ, जो कि इसके कारण से कुछ एक विशेष निमित्त बनने की शक्ति को लेकर आता है। इसे 'कर्म' कहते हैं। मेरा अपराध मेरे जीवन में प्रवेश पाता है और कर्म शरीर में। मेरे अपराध से आगे बताये जाने वाले मेरे संस्कारों का निर्माण होता है औन इन कर्मों से सूक्ष्म-शरीर का अथवा कार्मण-शरीर का।। ___ वास्तव में सूक्ष्म शरीर ही मेरा बन्दीगृह है, स्थूल-शरीर नहीं। यदि ऐसा न होता तो इस शरीर को आत्महत्या के द्वारा त्यागकर सम्भवत: मैं इस बन्दीगृह से निकल भागता, और इस प्रकार इसका अभाव हो जाने पर इस सम्बन्धी इच्छाएँ मुझे प्रकट न हो सकतीं, मैं शान्त हो जाता । परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है । स्थूल शरीर का विच्छेद हो जाने पर इच्छाओं का विच्छेद नहीं होता, और यह कामर्ण-शरीर पुन: नये शरीर का निर्माण कर देता है। अत: शान्ति का उपाय स्थूल-शरीर का विच्छेद करना नहीं है, बल्कि कुछ और है। ___ यदि उस सूक्ष्म शरीर का किसी प्रकार विच्छेद कर दिया जाए तो सहायक के अभाव में यह स्थूल शरीर भी टिका नहीं रह सकता, त्यागपत्र देकर स्वयं चला जाता है, और उसका यह त्यागपत्र सदा के लिये होता है। प्रतिदिन-वाली यह मृत्यु वास्तविक नहीं है, तब इसकी मृत्यु वास्तविक होती है। यह फिर मुझको बन्दी नहीं बना सकता, परन्तु उस सूक्ष्म-शरीर का विच्छेद कैसे किया जाए, सो विचारनीय है। सूक्ष्म व अदृष्ट होने के कारण तथा दूध-पानीवत् मेरे साथ मिलकर पड़ा होने के कारण, किसी यन्त्र के द्वारा उसका विनाश किया जाना असम्भव है । अग्नि के द्वारा भी उसे भस्म नहीं किया जा सकता । वास्तव में उसका विच्छेद करना मेरे बसकी बात नहीं। जिसे मैं छू व देख तक नहीं सकता, उसके विच्छेद करने का स्वप्न देखना भ्रम है । हाँ मैं उस अपराध का विच्छेद अवश्य कर सकता हूँ जिसके कारण से कि इसका प्रवेश हो रहा है। ___ अपराध को करने वाला स्वयं मैं हूँ और वह अपराध तत्क्षण व्याकुलता के रूप में मेरे अनुभव में आ रहा है । मैं उससे भली भाँति परिचित हूँ। उसे करने का व न करने का मुझे पूरा अधिकार है और यदि मैं स्वयं अपराध न करूँ तो कोई शक्ति जबरदस्ती मुझे अपराध करने के लिये बाध्य नहीं कर सकती। इन उपरोक्त कर्मों का दास बना आज का जगत अपने को उस सूक्ष्म शरीर के आधीन मानता है। “मुझसे तो अपराध वह करा रहा है। जब तक वह रास्ता न देगा, मैं क्या कर सकता हूँ ? उसका उदय होगा तो मुझे अपराध करना ही पड़ेगा। मैं क्या करूँ ? मैं स्वयं तो अपराध करना चाहता नहीं, पर यह मेरा पीछा छोड़ता नहीं। यदि गुरुदेव दया करके इससे मेरा पीछा छुड़ा दें तो मैं अपराधी कभी न बनें।" और इस प्रकार अपना दोष दूसरों के गले मँढ़ता है, स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। अपने अपराध को स्वीकार करने तक का साहस जिसमें नहीं है, वह बेचारा पामर व्यक्ति कभी यह नहीं विचारता कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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