________________
७५
१२.नियतिवाद
८. सर्वाङ्गीण मैत्री स्वभाव या पुरुषार्थ क्या करेंगे बेचारे ? यदि पुरुषार्थ न हो तो प्रवृत्ति ही न हो, बैठे रहें स्वभाव, निमित्त तथा नियति हाथ पर हाथ रखे । यदि नियति न हो तो हृदय में काम करने की रुचि ही जागृत न हो और उसके अभाव में पुरुषार्थ का जन्म ही न हो । यदि भवितव्य न हो तो कार्य ही न हो, क्योंकि कार्य का नाम ही तो भवितव्य है । जब कार्य ही नहीं तो सर्व अंगों का मिलना व्यर्थ।
पाँच अंगों से समवेत यही है वस्तु की स्वतन्त्र कार्य व्यवस्था, जिसे देखा जा सकता है और देखकर आनन्द लूटा जा सकता है, केवल ज्ञानधारा के द्वारा । कर्मधारा को आज्ञा नहीं है इसके राज्य में प्रवेश पाने की । अत: अपने ज्ञान को कुछ सरल कर, खेंचतान छोड़, अपने किसी पक्ष के कारण वस्तु-स्वरूप का या सिद्धान्त का निरादर न कर । पाँचों समवायों को यथोचित रूप में स्वीकार कर । वस्तु स्वातन्त्र्य का यह अर्थ नहीं कि उसमें निमित्त का कोई स्थान नहीं, और निमित्त की स्वीकृति का यह अर्थ नहीं कि नियति तथा भवितव्य कोई वस्तु नहीं और न ही नियति तथा भवितव्य की स्वीकृति का यह अर्थ है कि पुरुषार्थ तथा निमित्त व्यर्थ हैं । सबको युगपत् देखने का प्रयत्न कर और वह तभी सम्भव है जब कि तू शब्दों के घरोंदे से निकलकर ऊपर व्योम में चला जाए और वहाँ स्थिर रहकर देखा करे इस सकल विस्तार का तमाशा।
MATH
SARMPARAN
B
y
.
समस्त वादों से अतीत आत्मस्वरूप में स्थित भगवद् चरणों में जाति विरोधी जीवों की मैत्री।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org