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१२. नियतिवाद
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८. सर्वाङ्गीण मैत्री ज्ञान की शक्ति वर्तमान में तुझे सहज प्राप्त है, इसलिये उसे प्राप्त करने के लिये भी तुझे कुछ करना नहीं है । प्राप्त को प्राप्त करने का प्रयत्न कौन करता है ? रह गया अकेला पुरुषार्थ । वही करने की बात है । गुरुवाणी रूप इस निमित्त की शरण में जाकर उसकी आज्ञानुसार सत्य पुरुषार्थ करे तो ये निमित्त भी सार्थक हैं, अन्यथा तेरे लिये वे निमित्त भी नहीं कहे जा सकते । परन्तु पुरुषार्थ क्या ? इस बात का उत्तर पहले दिया जा चुका है (देखो १०.३) । तीव्र लौकिक कर्मधारा से हटकर मन्द कर्मधारा का अर्थात् धार्मिक क्रियाओं का आश्रय ले। फिर उससे भी हटकर साक्षात् ज्ञानधारा में प्रवेशकर, और साक्षी-भाव से इस जगत का तमाशा देख । यही है सत्य पुरुषार्थ ।
और यदि कदाचित इन पाँचों में से कोई भी एक आकर अपनी शेखी बघारने लगे तथा अपने सहवीं अन्य समवायों का तिरस्कार करने लगे तो इस प्रकार समझाकर उसे शान्तकर देना चाहिये
(१) जब स्वभाव का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत हाने लगे कि स्वभाव ही सब कुछ है, निमित्तादि का कुछ मूल्य नहीं है तो मन्ता का कर्त्तव्य है कि वह पुरुषार्थ की ओर देखकर ऐसा विचार करे कि स्वभाव तो एक कालातीत सामान्य बात है । वह तो न कुछ करता है न किसी को कुछ करने की प्रेरणा देता है। कार्य करना तो मेरे पुरुषार्थ के आधीन है। जब जैसा पुरुषार्थ करूँगा तब वैसा ही कार्य होगा और यही है उसकी नियति और भवितव्य ।
(२) जब निमित्त का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होने लगे कि निमित्त ही सर्वेसर्वा है, नियति आदि का मूल्य नहीं, तो मन्ताका कर्तव्य है कि तत्सहभावी स्वभाव, पुरुषार्थ और नियति इन तीनों की ओर देखकर ऐसा विचार करे कि यदि मेरा स्वभाव परिणमन करने का न होता तो निमित्त बेचारा क्या करता । अथवा यदि उसके सद्भाव में भी मैं पोस्ती बना बैठा रहता है तो वह बेचारा क्या करता । यदि प्रेरक निमित्त आकर यह कहने लगे कि मैं तुझे पुरुषार्थ करने के लिये बाध्य कर सकता हूँ तो साथ में रहने वाली नियति की ओर देखकर तू उसके इस अहंकार को दूर करदे
और उसे कह दे कि जैसी नियति होगी वैसा ही निमित्त आयेगा । अपनी मर्जी से कोई भी निमित्त जब चाहे प्राप्त हो जाए, यह सम्भव नहीं । नियति के आधीन होने के कारण जो स्वयं परतन्त्र है वह दूसरे को क्या परतन्त्र बनायेगा।
रुषार्थ आकर यह अहंकार करने लगे कि सर्वत्र मेरी ही प्रधानता है, अन्य सर्व बातें तुच्छ हैं, तो मन्ताका कर्त्तव्य है कि वह नियति की ओर देखकर उसे यह समझा दे कि देख भाई ! तेरा पक्ष यद्यपि प्रबल है, परन्तु तनिक यह विचार कि बिना हार्दिक रुचि के भी क्या त जागृत हो सकता है कभी? और हृदय के राज्य में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता को अवकाश नहीं । वह तो समय आने पर स्वत: स्फुरित हो जाती है न जाने क्यों तथा कैसे। इस प्रकार रुचि नियति के आधीन है, और वही तेरी जननी है । जब जैसी नियति होती है, तब वैसी ही रुचि होती है, जब जैसी रुचि होती है तब वैसा ही पुरुषार्थ जागृत होता है और जब जैसा पुरुषार्थ होता है तब वैसा ही कार्य या भवितव्य होता है । अत: व्यर्थ का गर्व मत कर।
(४) जब नियति का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत हाने लगे कि इसने वस्तु को सर्व ओर से जकड़ लिया है, तो साथ में रहने वाले पुरुषार्थ की आरे देखते हुए उसे यह कहकर शान्त कर दे कि हे माता ! तू तो कुछ करने की प्रेरणा किसी को देती नहीं, तू तो मात्र उस काल का नाम है जिस काल में कि वह कार्य होना होता है। कार्य करना तो पुरुषार्थ के आधीन है । जब जैसा पुरुषार्थ करूँगा तब वैसी ही मेरी प्रवृत्ति होगी, तब वैसे ही निमित्तों का ग्रहण-त्याग होगा और जब जैसे निमित्तों का ग्रहण-त्याग होगा तब वैसा ही कार्य या भवितव्य सिद्ध होगा।
(४) जब भवितव्य आकर अपनी डींग हाँकने लगे तो साथ में रहने वाले शेष चार अंगों की ओर देखते हुए उसे यह कहकर जरा डरा दे कि तेरा तो अपना कोई स्वतन्त्र स्वरूप ही नहीं है। जहाँ जब जैसा पुरुषार्थ जागृत होकर जैसे कैसे निमित्तों का ग्रहण-त्याग करता है, तहाँ तब वैसा ही कार्य सिद्ध हो जाता है, और होने योग्य वह कार्य ही तेरा स्वरूप है।
___ इस प्रकार पाँचों का युगपत् एक दूसरे के साथ गुंथे रहना ही वस्तु-व्यवस्था है। किसी एक अंग को भी हटा दिया जाए तो कार्य की गति रुक जाए । स्वभाव न हो तो परिवर्तन ही न हो, कार्य कैसे होगा, चाहे जोर लगालें सब मिलकर । यदि निमित्त न हो तो परिवर्तन ही न हो । काल नामक सामान्य निमित्त न हो तो मृत्तिका में अथवा तन्तुओं में सामान्य परिवर्तन न हो, और चक्र-चीवर आदि विशेष निमित्त न हों तो उनमें घटरूप या पटरूप विशेष परिवर्तन न हो,
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