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________________ २३. देव-पूजा १३० ३. आदर्श-देव के भण्डार श्रीकृष्ण । “प्रभो ! मुझे भी दे दीजिये कुछ ?” "हां, हां लो। बताओ क्या चाहिये ? संगीत का मधुर पान चाहिये तो यह लो, अपने साथियों से प्रेम करने की इच्छा हो तो यह लो, वीरता चाहिये तो यह लो, राजनीति चाहिये तो यह लो, धन-महल चाहिये तो यह लो। अरे ! तुम तो कुछ बोलते ही नहीं ? बोलो, डरो नहीं, जो चाहिये ले लो।" "परन्तु भगवन् ! मेरे काम की तो इनमें एक भी वस्तु नहीं। मुझे तो शान्ति चाहिये, हो तो दे दीजिये।" "हैं ! क्या कहा ? भाई यह तो कुछ कठिन समस्या है। यही एक वस्तु ऐसी है जो मेरे पास नहीं है। मैं स्वयं इसके लिये वैराग्यमूर्ति श्मशानवासी शिव की उपासना करता हूँ।" आइये इधर देखिये, कैसी भीड़ लगी है ? अरे ? ये तो राजाराम हैं। कन्धेपर धनुष, दाईं ओर भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण और बाईं ओर माता सीता । अहा हा ! कितना मनोज्ञ है यह दृश्य, मानो विश्व को प्रेम का संदेश सुना रहा है मख पर कोमल-कोमल मस्कान-मानो जगत को निर्भयता प्रदान कर रहे हैं। आओ इन्हीं के सामने झोली फैलाकर देखू, सम्भवत: कुछ मिल जाय । देखिये ये स्वयं बुला रहे हैं। कितना प्रेम है इनमें । “प्रभो ! मुझे भी दे दीजिये कछ।" "ले लो भाई ! यह पड़ा है ढेर, जो चाहे ले जाओ। देखो यह पड़ी है पितभक्ति, इधर देखो यह पड़ा है प्रजापालन, और वह देखो रखा है न्याय, यह है वीरता, और यह लो कर्त्तव्य-परायणता । बताओ क्या चाहिये? अरे ! चुप क्यों हो?" क्या कहूँ भगवन ! इस सबमें से मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, मुझे तो चाहिये केवल शान्ति ।” “ओह ! समझा । बहुत भाग्यशाली हो तुम, उस महान वस्तु की जिज्ञासा लेकर आये हो जिसके सामने तीन लोक की सम्पदा तुच्छ है, जिसके लिये बड़े-बड़े चक्रवर्तियों ने राजपाट-को लात मार दी, और जिसके लिये मैंने स्वयं भी इस सम्पूर्ण जाल को तोड़कर वीतरागी-वेष धर वनवास को अपना सौभाग्य समझा । तुम सम्भवत: नहीं देख पा रहे हो मेरे जीवन का वह पिछला भाग, जब कि मैं राजा राम नहीं था बल्कि था साधूराम और न देख रहे हो मेरा आज का जीवन, जबकि मैं राजाराम की बजाए भगवान राम बन चुका हूँ। यदि शान्ति चाहिये तो-राजाराम के पास न मिलेगी बल्कि भगवान राम के पास मिलेगी, मुनि-राम के पास मिलेगी, तपस्वी राम के पास मिलेगी, दिगम्बर-राम के पास मिलेगी, जिसको न रही थी महल की आवश्यकता, जिसको नही थी वस्त्रभूषण की आवश्यकता, जिसको न रही थी दासियों की आवश्यकता, जिसको न रही थी धनुष-बाण की आवश्यकता।" जब उसका नाम राम नहीं रह गया था बल्कि हो गया था इन्द्रिय-विजयी जिन । (जैन मान्यता के अनुसार सर्व तीर्थकरों की भाँति भगवान राम तथा भगवान हनुमान ने भी सन्यास लेकर तपश्चरण द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी।) कैसा मधर व निःस्वार्थ है इनका उपदेश ? धन्य हो गया हैं भगवन आज इसे सनकर आपने मझे अधिक भटकने से बचा लिया। यदि आपसे उस शान्ति-भण्डार मुनि व भगवान राम के सम्बन्ध में परिचय न पाता तो न जाने किस-किस के दर की ठोकरें खानी पड़ती। बड़ा अनुग्रह हुआ है नाथ आपका, कृपया आशीर्वाद दीजिये कि मैं उस परम-योगेश्वर को खोज निकालने में सफल हो जाऊं। ३. आदर्श-देव-कहां खोजूं उन्हें ? घर में या वन में ? चलो पहले घर में ही खोजू । अरे ! ये रहे वे तो, मेरे ही घर में। घर में भी क्या, स्वयं मुझमें । मुझमें भी क्या, स्वयं मैं ही तो हूँ शान्ति तथा समताका आवास, महाप्रभु चैतन्य, महातत्त्व, जीवतत्त्व । क्या नहीं देख रहे हो ? चलो भीतर । इन्द्रियों के पीछे तथा इनके द्वारा गृहीत विविध ज्ञेयाकृतियों के पीछे। मनके पीछे तथा इसके द्वन्द्वात्मक संकल्प-विकल्पों के पीछे, इसकी राग द्वेषात्मक कषायों के पीछे । बुद्धि के पीछे तथा इसकी विविध तर्कणाओं के पीछे, धारणाओं तथा स्मृतियों के पीछे अहंकार के पीछे तथा इसके विविध संस्कारोंके पीछे, वासनाओं कामनाओं व इच्छाओं के पीछे। भीतर, और भीतर, हृदय की अन्तस्तम गुफा में। कितना प्रचण्ड है इसका तेज, महातत्त्व की ज्योति ? इसी के तेज से तेजवन्त है मन तथा इसका जगत, इसी की ज्योति से ज्योतिवन्त है बुद्धि तथा इसका विस्तार, इसी की सुवास से वासित है अहंकार तथा इसकी वासनायें । सबमें अनुस्यूत है यह, सबमें अनुगत है यह, माला के दानों में पिरोये गए डोरे की भाँति । कितनी चतुराई से छिपाया है इन्होंने अपना रूप, ताकि किसी जगवासी की नज़र न लग जाये इन्हें । अत्यन्त सुन्दर हैं न ये और साथ ही एक चतर कलाकार भी। परन्तु कहाँ जाओगे प्रभु ! मुझसे छिपकर ? क्या तरंग से सागर छिपा है कभी ? आप ही का तो शिशु हूँ मैं, आप ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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