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________________ २३. देव-पूजा १३१ ३. आदर्श-देव का तो अंश हूँ मैं, आप ही की तो तरंग हूँ मैं। भले छोटा सा हूँ, भले अबोध हूँ परन्तु आपकी एक किरण जो प्राप्त करली है मैंने गुरुकृपा से। परन्तु यह क्या? लुप्त हो गए ? इतनी जल्दी ? बड़े माया-जालिये हैं आप। आपसे मेरा प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। एक क्षण को भी नहीं टिकते, मुझे देंगे क्या ? मुझे तो चाहिये ऐसे देव जिनसे मुँह-दर-मुँह बातें कर सकूँ मैं, जिनकी गोद में खेल सकूँ मैं, जिनका प्यार पा सकू मैं जिनको अपने दुःख सुख की व्यथा सुना सकू मैं और जिनसे भीख मांग सकूँ मैं। और यह लो मेरे सौभाग्य से ऋषियों ने बना दिया इस निराकार को साकार, तत्त्व को मानव, अतिमानव। किसी को लगा दिये चार हाथ पांव और किसी को दस । किसी का रूप बनाया सुन्दर और किसी का भयंकर । विविध शक्तियों के प्रतीकरूप में विविध आयुध दे दिये उनके हाथों में, और उनकी प्रधान चित्शक्ति को ला बैठाया उनके वाम-भाग में, उनकी अर्धांगिनी बनाकर । विविध गुणों के प्रतीकरूप में विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों से अलङ्कृत कर दिया उनके दिव्य शरीरों को। परन्तु कहाँ से लाऊँ बुद्धि इतनी कि दर्शन कर सकूँ इन विविध प्रतीकात्मक आकारों में निराकार के, देख सकूँ इन अतिमानवों को तत्त्व के रूप में, जिसके प्रतीक बनाये गये हैं ये । मुझे तो दीखता है केवल उनका बाह्य रूप, उनकी सुन्दर अथवा भयंकर आकृतियाँ, उनके आयुध तथा वस्त्रालङ्कार, उनकी पत्नी तथा उनके सेवक । इन्हें देखकर समझ बैठता हूँ मैं इन्हें सातवें आसमान में रहने वाला कोई भोगी-विलासी, रागी-द्वेषी, अपने शत्रुओं के प्रति भयग्रस्त, उनके साथ युद्ध करने में रत और न जाने क्या-क्या । एक लौकिक सम्राट से अधिक दीखते ही नहीं वे मुझे। कैसे करूं इनमें देव के दर्शन, अपनी आदर्शभूत समता तथा शान्ति के दर्शन ? अत: इनसे भी मेरा काम चलने वाला नहीं। चलिये अब वनकी ओर, अपने प्रभु को खोजने, जो मेरी झोली में शान्ति की भिक्षा डाल सकें। अरे ये सामने कौन दिखाई दे रहे हैं, कितनी शान्त व सौम्य है इनकी मुखाकृति, रोम-रोम से शान्ति का प्रसार करते मानो साक्षात् शान्ति के देवता ही हैं जिनका नग्न वेष बता रहा है कि इन्हें कोई इच्छा नहीं, कोई चिन्ता नहीं गरमी की या सर्दी की, भूख की या प्यास की। इनकी शान्त-मुस्कान बता रही है कि इन्हें कोई आश्चर्य नहीं कोई शोक नहीं, कोई भय नहीं, जिसके कारण कि इन्हें शस्त्र अपने पास रखने पड़ें। इनका पुलकित शरीर बता रहा है कि इन्हें कोई राग भी नहीं। शान्ति में इनकी निश्चलता बता रही है कि इस व्याकुल जगत से इनका कोई सम्पर्क नहीं, और न ही आगे कभी होगा। इनका सन्तोष बता रहा है कि इस शान्ति का विच्छेद इनसे कभी नहीं होगा। इनकी साम्यता बता रही है कि इन्हें न भक्त से प्रेम है न निन्दक से द्वेष । इनकी सौम्यता इनके अन्तरंग की साम्यता को दर्शा रही है तथा बतला रही है कि इन्हें कोई अभिमान नहीं, किसी भी परपदार्थ का कुछ करने सम्बन्धी मोह नहीं। इनकी सरल चित्तता बता रही है कि इन्हें कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ रहा है। वही तो हैं । ये, जिनका दर्शन किया था मैंने अपने भीतर । उन्हीं का तो साकार रूप है यह, उन्हीं की तो प्रतिच्छाया है यह। खुले आकाश के नीचे अस्पष्ट तथा अलिप्त बैठी यह निर्भीक-शान्तमुद्रा न जाने मुझे क्यों रस्सा बान्धकर अपनी ओर खेंच रही है ? कितनी शान्ति आ गई है इनके दर्शनमात्र से? इस समय मैं भूल बैठा हूँ सब कुछ, यहाँ तक कि यह भी कि मैं यहाँ किस काम के लिए आया था। मानो मैं स्वयं ही शान्त हआ जा रहा हूँ। चन्दन के आस-पास लगे वृक्ष भी स्वत: चन्दन बन जाते हैं। इस शान्ति के देवता का भी तो ऐसा ही महात्म्य प्रतीत होता है कि इनसे बिना कुछ मांगे ही मैं तृप्त हुआ जा रहा हूँ, कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ। भोगों का रस इस समय मुझे विषमय भास रहा है, स्त्री व बच्चों की चीख-पुकार मानो मेरे कानों को चीरे डाल रही है, धन सम्पत्ति मानों एक बड़ा भारी भारसा प्रतीत हो रहा है, इसका उपार्जन व रक्षण अब साक्षात् दावाग्निवत् दिखाई पड़ रहा है । मैं भी स्वयं शान्ति के साथ तन्मयसा हो गया हूँ, शान्ति सुधा का मानो पान ही कर रहा हूँ। आज मैं अपने को भिखारी नहीं समझता। मैं तो स्वामी हूँ, सामने बैठा इन जैसा ही सा समझ रहा हूँ कुछ अपने को । ठीक ही सुना करता था कि प्रभु अपने आश्रितों को अपने समान कर लेते हैं, आज उस बात का साक्षात् हो रहा है । अन्तर केवल इतना है कि तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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