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२३. देव-पूजा
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४. आदर्श-पूजा समझा करता था यह कि वे उसे कुछ राज्य वैभव आदि देकर अपने बराबर करते हैं, और अब समझता हूँ यह कि उनका करना तो नाम मात्र है, वास्तव में उनके बिना किये स्वत: उनका आश्रित उनके समान शान्त हो जाता है, उनके बिना कुछ दिए स्वत: वह वस्तु अर्थात् शान्ति पा लेता है, जिसकी इच्छा लेकर वह इनकी शरण में आया था तथा जिसके लिए भटकता भटकता वह कुछ निराश हो गया था।
अहो ! इस परम अभीष्ट शान्ति को पाकर, उस शान्ति को कि जिसके पाने के लिये मुझे व्यर्थ ही अनेकों द्वारों की ठोकरें खानी पड़ी। मैं आज न जाने अपने को कितना महान् देख रहा हूँ। कुछ ऐसा सा लगता है कि मानों मुझे नाली से निकालकर सिंहासन पर बैठा दिया गया हो, राजतिलक के लिये। परम सौभाग्य ही जागृत हो गया है आज मेरा । आजतक राजा-राम को देखता रहा, अब भगवान राम को देख रहा हूँ, भगवान हनुमन्त को देख रहा हूँ, भगवान ऋषभ को, देख रहा हूँ, अरिष्ट-नेमि को देख रहा हूँ, भगवान पार्श्व व महावीर को देख रहा हूँ। मानो साक्षात् ब्रह्मा को शिव को या शंकर को देख रहा हूँ, महादेव या महेश को देख रहा हूँ, विष्णु या बुद्ध को देख रहा हूँ, अल्लाह या खुदा को देख रहा हूँ। जिनको आजतक पृथक्-पृथक् देखकर व्यर्थ द्वेष की ज्वाला में जलता रहा, आज उनको एक शान्ति के आदर्श रूप में देख रहा हूँ । वास्तव में आज मैं धन्य हो गया हूँ।
जगत् पुकारता रहे इन्हें अनेकों नामों से, परन्तु शान्ति के भिखारी मेरे लिये यह राम है न कृष्ण, न राजा है न वीर, है केवल शान्ति का प्रतीक । यह है मेरा लक्ष्यबिन्द, मेरे जीवन का आदर्श। यह है वह जो कि बनना चा है मेरा उपास्य देव जिसके चरणों का दास बनने की मैंने प्रार्थना की थी। सर्वत्र घमा पर राग व इच्छा. द्वेष व भय. प्रेम व शोक के अतिरिक्त कुछ न देखा, सब स्थानों से निराश ही लौटा । सर्व दोष विमुक्त इस शान्ति के सौन्दर्य में मुझे वह दिखाई दे रहा है जो मैंने कहीं नहीं देखा अर्थात् वीतरागता, छोटे-बड़े ऊँचे-नीचे सर्व-प्राणियों के प्रति साम्यता, सरलता, सौम्यता, स्थिरता, क्रोधादि-रहित प्रसन्नचित्तता । अनेक गुणों का भण्डार यही था मेरा लक्ष्य, जिससे मुझे कुछ मांगना था, पर बिना माँगे ही जिसे देखकर मुझे मिल गया।
४. आदर्श-पूजा–शान्ति के उपासक मैंने दर-दर की ठोकरे खाकर आखिर शान्ति के देवता को अर्थात् अपने इष्ट देव को ढूंढ ही लिया। परन्तु किंकर्तव्य-विमूढ़सा मैं अब इनकी पूजा कैसे करूँ । क्या जल से ? या चन्दन से ? या अक्षत पुष्पादि से ? इन वस्तुओंकी इन्हें आवश्यकता ही क्या है ? अरे भोले ! इनको तो तेरी पूजा ही की कौन आवश्यकता है ? इनको तो कुछ नहीं चाहिए; तू चाहे पूजा कर या निन्दा, ये तो दोनों में समान हैं। चाहे जल चढ़ा या विष, दोनों से ही इनको लाभ-हानि नहीं। ये हैं तेरे विकल्प, चाहे किसी प्रकार पूरे कर।।
मैं क्या करूँ प्रभु ! कुछ भी किए नहीं बनता, एक ओर आप शान्ति के देवता, त्रिलोकाधिपति, और दूसरी और
। सर्व लोक में ऐसी कोई वस्तु ही नहीं दिखाई देती जिसे आपके चरणों में भेंट करूँ, असमञ्जस में पड़ा हूँ, कभी आपको और कभी अपने को देखता हूँ। कहाँ बिठाऊँ आपको? तीनलोक में आपके योग्य स्थान ही दीखता नहीं। तो क्या मैं आपकी पूजा ही न कर सकूँगा? क्या सेठ लोगों को ही अधिकार है इस महा-सौभाग्य का ? बोलते क्यों नही? मैं भी तो आपका सेवक हूँ ? भले कुछ न आता हो मुझे, भले बोलना भी न आता हो मुझे, भले मेरे पास धन न हो, भले मेरे पास आपकी भक्ति के पाठ न हों, परन्तु इतना तो अवश्य है मेरे पास कि मेरे हृदय में आपको देखकर कुछ तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ है। क्या कहूँ मैं उसे? मैं स्वयं नहीं जानता कि क्या है वह ? कुछ बहुमान सा है। यद्यपि आपके योग्य तो नहीं पर कुछ है अवश्य । बस यही सामग्री है मेरे पास । क्या स्वीकार कर लेगें मेरी पूजा को?
अहा ! शान्ति ही शान्ति दीखती है चहूँ ओर, सर्व विकल्प शान्त हो गए हैं मेरे, कोई चिन्ता नहीं रही है, शान्ति के इस प्रवाह में स्वयं खोसा गया है. अपनी महिमा का भान होने लगा है। मैं चैतन्य हूँ. सब बाहा दीखने वाले नाते कहाँ है मुझमें ? मैं 'मैं' का विचार कर सर्वदा इसमें ही खोया रहूँ तो कहाँ है अवकाश चिन्ताओं को, कहाँ है अवकाश विकल्पों को, और कहाँ है अवकाश व्याकुलता को ? आप जैसा ही तो हूँ, अमूर्तिक व शान्तिस्वरूप । यदि अन्य का विचार न करूँ तो शान्ति ही है । आपको देखकर अन्य सर्व को मैं पहले ही भूल चुका हूँ। आपको मेरी इस भक्ति से
मैं की
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