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४१. ध्यान
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८. तत्त्व-चिन्तन
(८) भो चेतन ! क्यों व्यर्थ रागद्वेष करता है जगत के इन चित्र-विचित्र पदार्थों में उलझकर, क्यों इष्टानिष्ट की कल्पनायें करता है? तू ही बसता है इन सब में, कुछ में प्रत्यक्ष और कुछ में परोक्ष, कुछ में आज कुछ में कल । जड़ चेतन के भेद को भी अवकाश कहाँ है यहाँ ? जड़ कहलाने वाले ये सब पृथ्वी, पाषाण, धातु, लकड़ी, वस्त्र आदि भी तो रह चुके हैं पहले तेरे आवास, तेरे शरीर ? तू ही तो बसता है या बसता था इन सब में, और इस प्रकार तेरा ही तो आवास है यह अखिल विस्तार ? विषमता को अवकाश कहाँ ? ज्ञाता दृष्टा बनकर देख अपने ही इस अखिल विस्तार का विलास, अपना कला-कौशल । कितनी अद्भुत है इसकी महिमा और तेरी महिमा ? (
(९) जड दिखते हों या चेतन, तेरे ही तो शरीर हैं, तेरी ही तो उपज है, सब तेरी ही तो सन्तान है, कोई बड़ी और कोई छोटी, किसी को जन्म दिया था कल और किसी को दिया है आज । तेरी ही भाँति हैं अन्य भी अनन्तों । सब वही तो कर रहे हैं जो तू कर रहा है। सब भाई-भाई हैं, सब मित्र-मित्र हैं-एक कुटम्ब है, अखण्ड तथा निर्द्वन्द्व । कहाँ है मैं-तू का, शत्रु-मित्र का, सज्जन-दुर्जन का, ऊँच-नीच का, स्त्री-पुरुष का, अथवा इष्टानिष्ट का द्वन्द्व ? क्या माता भी करती है अपनी सन्तान में कभी ऐसा भेद ? प्यार कर सबसे, हृदय से लगा सबको, आत्मसात् कर सबको, अपने से चिपटा ले सबको, अपने में समा ले सबको । (देखो २६.१०)।
(१०) इसमें और मुझमें क्या अन्तर है । इसमें भी 'मैं', मुझमें भी 'मैं' । दोनों में क्या अन्तर है । सबमें सर्वत्र यह 'मैं', ही तो प्रतिबिम्बित हो रहा है । इसके अतिरिक्त और दिखता ही क्या है यहाँ ? जिसे अपनी तथा अपनी भावनाओं की खबर नहीं ऐसे दृष्टि-विहीन को भले सब में और अपने में कुछ अन्तर या भेद दिखाई दे, परन्तु दृष्टिसम्पन्न के लिये क्या भेद, कैसा भेद । सब में सर्वत्र इस 'मैं मैं मैं' का ही तो विलास है । भले गणना में अनेक हों, सबके शरीरों में पृथक्-पृथक् हों, परन्तु केवल चैतन्य को, केवल तत्त्व को लक्षित करने वाली दृष्टि में इस भेद को भी अवकाश कहाँ, इस द्वैत का भी विकल्प कहाँ । उसके लिये तो सब में सर्वत्र एक चित्पिण्ड ही लक्षित हो रहा है, अन्य कुछ नहीं । सकल द्वैत भ्रान्ति बनकर रह जाता है यहाँ. इस निर्विकल्प चिज्योति में। और यह जड पदार्थ? यह भी इस 'मैं' का शरीर ही तो है और इसलिये 'मैं ही तो है । आवास तथा आवासी का भेद भी तो उदित नहीं हो रहा है यहाँ, इस परम समाधि में । कौन-सा पदार्थ ऐसा है जो इस समय मुझे 'मैं' रूप नहीं दीख रहा है । मनुष्य भी 'मैं' रूप, पशु पक्षी भी 'मैं' रूप, यह जीवित आवास भी 'मैं' रूप और ये सकल मृत आवास भी 'मैं' रूप । सर्वत्र एक 'मैं' ही 'मैं', चेतन प्रभु ही चेतन प्रभु । सब में एक रूप से प्रतिभासित यह 'मैं' ही तो है वह चेतन महा-प्रभु, वह सत्य तत्त्व जिसे विद्वान लोग कहते हैं 'ब्रह्म' । इस प्रकार देखने पर सब में सर्वत्र सर्वरूप एक ब्रह्म ही बह्म दीखता है, अन्य कुछ नहीं 'एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, सर्व खल्विदं ब्रह्म' । अहा हा ! कितना महिमावन्त है इस 'मैं' का स्वरूप समता का उच्चतम आदर्श।
नोट-७-१० तक के इन चार चित्रणों का तात्त्विक समन्वय पहले किया जा चुका है । (देखो २६.११)।
(११) कितना बड़ा कारखाना है तेरा यह अखिल विस्तार । कोई पुर्जा छोटा और कोई बड़ा, परन्तु सब एक दूसरे के साथ जड़े हए, इस प्रकार किन हटाया जा सकता है कुछ और न बढ़ाया जा सकता है कुछ। फिर करता है किसी को बनाने का और किसी को बिगाड़ने का, किसी को मिलाने का और किसी को हटाने का, किसी को तोड़ने का और किसी को जोड़ने का? सदा से चलता रहा है यह इसी तरह और सदा चलता रहेगा यह इसी तरह, न कभी रुका है और न कभी रुकेगा। तात्त्विक स्वभाव के अतिरिक्त न कोई चलाने वाला है इसे और न रोकने वाला। केवल तमाशा देखा कर इसका, अपने कला-कौशल का। केवल देख इसे और देखता ही रह, बिना कुछ करने का विकल्प किए, साक्षी मात्र रह कर, ज्ञाता मात्र रह कर । (देखो १२.८)।
(१२) ओ चित्त ! क्यों व्यर्थ व्यग्र हो रहा है करने-धरने के विकल्पों में उलझकर, जाने-आने के विकल्पों में उलझकर, कहने-सुनने के विकल्पों में उलझकर ? एक अखण्ड तात्त्विक व्यवस्था है यह, बाहर भी और भीतर भी, काल की, महाकाल की। सब कुछ स्वत: निकला आ रहा है उसमें से और सब कुछ समाया जा रहा है उसमें । तेरी
ही कितनी है इस महा-शक्ति के सामने । याद रख पिस-कर रह जायेगा। क्या नहीं देख रहा है कि तेरे जैसे कितने मूर्ख नित्य आ रहे हैं इसकी झपेट में और पिस-पिसकर नष्ट हुए जा रहे हैं यहाँ, दीप-शिखा पर स्वयं आ-आकर
कल्प
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