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________________ ४१. ध्यान २७९ ९. निरीह वृत्ति भस्म होने वाले पतंगों की भाँति । सम्भल, सम्भल, बस आगे न बढ़, यहाँ खड़ा रहकर ही देख तमाशा तथा महिमा इस महा-तत्त्व की। (१३) हे 'मैं' रूप में प्रकाशित अन्तस्तत्त्व ! देख-देख तू है अकेला, सर्व अन्तरंग विकल्पों से तथा चार कोटि के पर पदार्थों से रहित (देखो ९.३), ज्ञान-ज्योति भगवान आत्मा । कितना शान्त है तेरा यह रूप और कितना सुन्दर, परन्तु हृदय-गुफा में छिपा-छिपा सा कुछ साँवला-साँवला सा । फिर भी हे श्याम-सुन्दर ! क्यों भटकता है तू कभी इस फूल पर और कभी उस फूल पर, रसलौलुप भँवरे की भाँति, छोड़कर अपनी पति-परायणा राधिका को अर्थात् अपनी आराधना को, शान्ति की आराधना को, इसकी साधना को ? क्या कुछ कम सुन्दर लगती है तुझे यह ? ९. निरीह वृत्ति यह है धर्म-ध्यान का चौथा रूप-'तत्त्व-चिन्तन', मन्त्रजाप्य स्तोत्र पाठ तथा भावना-भावन इन तीन रूपों से कुछ ऊँचा । और अब चलता है उसका पाँचवाँ रूप 'निरीह वृत्ति'। जिस प्रकार पानी से भरे लोटे को एक बार प्रयत्न पूर्वक घुमा देने के उपरान्त वह इशारे मात्र से ही बराबर घूमता रहता है, अथवा जिस प्रकार किसी मोटर या ऐञ्जिन को एक बार पूरी तरह शक्ति के प्रयोग द्वारा चला देने के उपरान्त वह अल्पमात्र शक्ति के प्रयोग से ही बराबर चलता रहता है, अथवा जिस प्रकार किसी उच्छृङ्खल घोड़े को एक बार अनेकविध उपायों द्वारा साध लेने के उपरान्त वह बिना किसी प्रयोग-विशेष के, स्वामी के इशारे पर बराबर चलता रहता है उसी प्रकार चित्त को बद्धि के प्रयलपर्वक चतर्विध ध्यानों द्वारा साध लेने के उपरान्त वह बिना किसी जाप्य या चिन्तन आदि का आश्रय लिए, बुद्धि या विवेक के इशारे पर चलता रहता है । किसी विषय की ओर उन्मुख हो जाने पर जिस प्रकार पहले वह कर्मधाराओं में बह जाता था, उस प्रकार अब नहीं बहता, प्रत्युत ज्ञानधारा में ही स्थित रहता है, अर्थात् उस विषय को ज्ञाता दृष्टारूप साक्षी भाव से जानता मात्र है, उसके साथ रागद्वेष-मिश्रित इष्टानिष्ट आदि रूप व्यर्थ के द्वन्द्वात्मक विकल्प नहीं करता । (देखो १०.२३) धर्म-ध्यान के इस क्षेत्र में किसी पदार्थ या विषय का जानना अनिष्ट नहीं है, अनिष्ट है उसके साथ-साथ बिना बुलाये आने वाले वे द्वन्द्वात्मक विकल्प जो कि साधक के अन्तस्तल को क्षुब्ध करके उसे अशान्ति के अथाह सागर में धकेल देते हैं । ज्ञान तो दर्पण है, जो भी उसके समक्ष आए उसे ही जान ले, उसे कुछ भी जानना अनिष्ट नहीं, भले ही हों धर्म-ध्यान के उपर्यक्त चार रूपों में चित्रित धार्मिक तथा आध्यात्मिक भाव अथवा हों धन. स्त्री. कटम्ब विषयक कोई लौकिक भाव । द्वन्द्वात्मक विकल्पों का उत्पत्ति-क्षेत्र न तो है ज्ञान और न हैं उसके विषय, प्रत्युत है केवल चित्त तथा उसके अनादिगत संस्कार, जिनकी शक्ति ध्यानाभ्यास द्वारा अब इतनी क्षीण हो चुकी है कि बुद्धि की उपस्थिति में या जागृति के कारण अब उन्हें उच्छृङ्खलता करने का साहस नहीं होता । बुद्धि भी पहले उन संस्कारों के कारण बहक जाती थी अर्थात् चित्त की उच्छृङ्खलता के प्रति जागृत रहते हुए बराबर उस पर दृष्टि रखने के जिस कार्य में ध्याता उसे नियोजित करता था, वह उन संस्कारों-वश अपने उस कर्त्तव्य को छोड़कर स्वयं चित्त का अनुकरण करने लगती थी। उससे पृथक् अपनी सत्ता का तथा अपने से पृथक् उसकी सत्ता का भान भी उसे नहीं रहता था। ध्यानाभ्यास के कारण उसने भी अब इस प्रकार बहकना छोड़ दिया है। अब वह बराबर अपने उक्त कर्त्तव्य के प्रति सतर्क रहती है। इसलिए योगी को जाप्यादि करने की अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। उसे अब केवल इतना ही करना होता है कि किसी भी एकान्त स्थान में पूर्वोक्त प्रकार निश्चल बैठकर चित्त को ढीला छोड़ दे और जाने दे उसे जहाँ भी वह जाना चाहता है, लेने दे उसे जिस-किसी भी विषय का आलम्बन वह लेना चाहता है, जानने दे उसे जिस-किसी भी विषय को वह जानना चाहता है। परन्तु बुद्धि को बराबर सतर्क रखता है और देखता रहता है केवल इतना कि चित्त कहाँ-कहाँ जा रहा है, और किस-किस विषय का आलम्बन ले रहा है अथवा किस-किस विषय को जान रहा है । स्वयं निरीह-वृत्ति से बैठा हुआ वह इतना मात्र ही प्रयत्न रखता है, इससे अधिक कुछ नहीं; न मन्त्र-जाप्य करता है, न स्तोत्रपाठ, न भावना-भावन और न तत्त्व-चिन्तन । बस इतने मात्र से उसके प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है। चित्त में द्वन्द्वात्मक विकल्प प्रवेश नहीं पाते । ज्ञान दर्पण में चलचित्र की भाँति पदार्थ आते रहते हैं और जाते रहते हैं; कुछ अल्पकाल मात्र रहकर चले जाते हैं और कुछ अधिक काल रहकर । इस प्रकार ज्ञातादृष्टा भावरूप ज्ञानधारा में ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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