________________
४१. ध्यान
११. शुक्लध्यान
स्थित रहता है वह, कर्त्ता-भोक्ता बनकर कर्मधारा में नहीं बहता है वह । इस प्रकार मोह- क्षोभ - विहीन नीरंग व निस्तरंग समता-माता की प्यार भरी गोद में विश्राम करता रहता है वह ।
१०. पदस्थादि ध्यान ——- यह ही है धर्मध्यान की सर्वोन्नत भूमि, जिससे आगे चलकर योगी प्रवेश करता है शुक्लध्यान की अन्तिम भूमि में । आगम में इन ध्यानों के लिए कुछ अन्य भी सैद्धान्तिक नामों का प्रयोग किया गया है । 'मन्त्रजाप्य' तथा 'स्तोत्रपाठ' वाले प्रथम दो ध्यान कहे जाते हैं 'पदस्थध्यान' क्योंकि इनमें पद अर्थात् शब्द का अथवा दृष्ट पदार्थ के नाम का अवलम्बन रहता है। 'भावना - भावन' वाली तृतीय भूमिको 'पिण्डस्थध्यान' कहा जाता है, क्योंकि वे सब भाव पिण्ड अर्थात् देह के सापेक्ष होते हैं । 'तत्त्व-चिन्तवन' तथा 'निरीह वृत्ति' वाली चतुर्थ व पँचम भूमियें 'रूपस्थध्यान' कहलाती हैं, क्योंकि इसमें न तो शब्द या नाम का आलम्बन होता है और न देह-सापेक्ष किसी भाव का, होता है केवल तत्त्व के स्वरूप का । निरीह - वृत्ति वाली पञ्चम भूमि में यद्यपि देह-सापेक्ष तथा देह-निरपेक्ष लौकिक तथा अलौकिक सभी पदार्थ ज्ञान के विषय बन जाते हैं, परन्तु रागद्वेषात्मक द्वन्द्वों का अभाव होने के कारण उसका समावेश पिण्डस्थ ध्यान में न करके इस तात्त्विक रूपस्थ ध्यान में ही करना अधिक उपयुक्त है। इसके पश्चात् आता है 'रूपातीतध्यान' और वही कहलाता है शुक्लध्यान — नामरूप के आलम्बन से अतीत होने के कारण रूप और केवल चिज्ज्योति मात्र का दर्शन होने के कारण शुक्ल ।
२८०
११. शुक्लध्यान — चित्त लय हो जाने के कारण भले रागद्वेषात्मक द्वन्द्व शेष न रह गए हों परन्तु बुद्धि जागृत रहने के कारण अन्तर्पट पर होने वाली विषयों की भागदौड़ तो अभी जीवित है ही। भले रागद्वेषात्मक उत्तराल तरंगों वाला क्षोभ शान्त हो गया हो इस महासागर का परन्तु ज्ञानात्मक क्षुद्र तरंगों वाला क्षोभ तो शान्त नहीं हो पाया अभी । भले ही दृष्टि में बाह्य जगत का लोप हो जाने के कारण पूर्णतः नीरंग हो गया हो वह, मोह-हीन हो गया हो वह परन्तु अन्तरंग में यह ज्ञानात्मक सूक्ष्म-जगत लुप्त न होने के कारण पूर्णतः निस्तरंग नहीं हो पाया है वह, क्षोभ-हीन नहीं हो पाया है वह । मोह-क्षोभ -विहीन साम्यरस बढ़ता जा रहा है, विशुद्धि में प्रतिक्षण अनन्तगुणी वृद्धि होती जा रही है, चारित्र बराबर ऊपर उठता चला जा रहा है, ज्योतिर्लोक की सीमाओं में प्रवेश पा गया है परन्तु पूर्ण नहीं हो पाया है वह, साक्षात् रूप से ज्योतिर्लोक का वासी नहीं हो पाया है वह ।
तथापि इतने मात्र से योगी निराश होने वाला नहीं । तप के प्रभाव से उसकी शक्ति में अनन्तगुणी वृद्धि हो चुकी है, उसके सहायकों की गति वेगवती हो चुकी है और शत्रु सेना दुम दबाकर भागी जा रही है। पीछा करता है यह महा सुभट उनका । बीज तक नाश करने का संकल्प किया है इसने उनका । चित्त तो पहले ही शरण: जा चुका था अपनी जननी बुद्धि की, और लो अब यह बुद्धि भी चली, भय के मारे काँपती हुई, शरण में अपनी जननी वासना की, जागृत वासना की नहीं प्रसुप्त वासना की, क्योंकि वह तो मूर्च्छित हो चुकी थी पहले ही, अपना कार्य करने में बिल्कुल असमर्थ । अत्यन्त क्षीणकाय वह अब कैसे रोक सकती है अन्तर्प्रभु के दर्शन को ? एक ओर चेतन सूर्य का अतुल प्रकाश और दूसरी ओर इसका झीना सा आवरण, कैसे रुक सकता है वह ? खुल गए हृदय गुहा के द्वार और हो गया योगी को साक्षात् उस महाप्रभु का एक अनिर्वचनीय ज्योति के रूप में, और इसीलिए कहलाता है यह शुक्लध्यान । आँखें योगी की, परन्तु दौड़ा वह बेतहाशा अपने प्रिय की ओर उससे चिपट जाने के लिये, उसमें लय हो जाने के लिये । वासना की बची-खुची सेना भस्म हो गई इस महा तेज में और जगज्जननी वासना भी समा गई उसी की कोख में। लय हो गया सब कुछ — चित्त गया बुद्धि में, बुद्धि गई वासना में, वासना गई महाप्रभु की कोख में । न रहा मैं और न रहा तू न रहा बाह्य जगत और न रहा भीतरी जगत । 'मैं' रूप अहंकार ही नि:शेष हो गया तब योगी भी कहाँ ? भले ही प्रतीति होती रहे उसे परं ज्योति की, परन्तु 'मैं अमुक नामधारी योगी' ऐसी द्वैत-प्रतीति कहाँ है अब उसे ? वह भी लीन होकर नि:शेष हो गई उसी में रह गई एक अनिर्वचनीय शान्ति तथा समतायुक्त ज्योति, सच्चिदानन्द परमेश्वर, महातत्त्व, स्वतत्त्व, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । शून्य में समा गया सब कुछ, बुझ गया दीपक चित्त का । यही है बौद्ध का निर्वाण, माध्यमिक का शून्य और जैन का मोक्ष |
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org